मैंने सोचा कि 30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी पर एक आर्टिकल लिखूँँ और इस मनोरथ से फेसबुक पर आया कि देखें, क्या बोलती पब्लिक। मगर फेसबुक खंगाला तो पाया कि गांधी कहीं हैं ही नहीं। कोई एक हार्दिक पंड्या जैसा दिखने वाला लड़का है जो बंदूक लहरा रहा है, फिर उसने किसी को गोली मार दी। पीछे पुलिस निर्लिप्त भाव से देख रही थी, किसी घटना का इंतजार कर रही थी। सही मायनों में पुलिस ने ही गाँधी की शिक्षा को माना। वह अहिंसक रही क्यूँकी हिंसा दूसरों पर हो रही थी।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आज होते तो शाहीन बाग में नहीं होते : Hindi Article (30 january)
Article on mahatama gandhi father of our nation (30 january)
यही शिक्षा हम सब सीख रहे हैं कि जब तक दूसरों पर हिंसा होगी, हम कुछ नहीं बोलेंगे। इस घटना से पहले लड़के ने अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा कि “आजादी दे रहा हूँ, मेरे अंतिम यात्रा पर...मुझे भगवा में ले जाएँ और जय श्री राम के नारे हों..मेरे घर का ध्यान रखना..।” ये कितना मासूम बयान है। जैसे कसाब कह रहा को कि बच गए तो गाज़ी नहीं तो शहीद। लड़का बाद में पकड़ लिया गया। कसाब भी पकड़ लिया गया था। मसूद अजहर नहीं पकड़े जाएंगे लेकिन....कभी भी नहीं।
यहाँ गाँधी की तो कोई जगह नहीं। दूसरे कोई शर्जील इमाम हैं, भारत का चिकन नेक काटने की बात कर रहे हैं। उनके साथ के लोग संविधान के लिए, गंगी जमुनी तहजीब के लिए, देश के भीतर समरसता बरकरार करने के लिए लड़ रहे थे। वो अलग अपने दीन के लिए लड़ रहे थे। हूरों का चक्कर ही कुछ ऐसा है। इस आंदोलन में बहुत से ऐसे लोग कूदें हैं जिन्हें लग रहा है कि उनका दीन खतरे में है, देश से उन्हें कोई मतलब नहीं...किसानों की आत्महत्या पर, स्टूडेंट्स के पीटे जाने पर, हजारों लोगों की नौकरियाँ जाने पर, बैंकों के पैसा न देने पर, कोई नहीं आया. यही तो नई वाली अहिंसा है जो नई वाली हिंदी से भी ज्यादा घातक है।
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एक जगह यूट्यूब कॉमेडियन कुनाल कामरा (kunal kamra) रिपब्लिक टीवी चैनल के पत्रकार अर्नब गोस्वामी के ह्रदय परिवर्तन का प्रयास कर रहे हैं। कुनाल कामरा अक्सर अपने कॉमेडी के वीडियो ऐसे लोगों और विचारधारा के खिलाफ बनाते हैं जो गाँधी के हत्यारे का समर्थन करते हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि हो सकता है वे महात्मा गाँधी के विचारों से इत्तिफाक रखते हों। मगर गाँधी उस फ्लाइट में भी नहीं थे। गाँधी मंत्री जी की उस रैली में हो सकते थे जहाँ से इस खूबसूरत नारे का आह्वान हुवा, “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को”। ये बहुत ही खूबसूरत नारा है। इसके कवि को बधाई पहुँचनी चाहिए मगर पार्टी की सदस्यता पहुंची होगी। ये इतना खूबसूरत नारा है कि हिटलर और गोयबल्स उपर बैठे पैर पटक रहे होंगे कि ये हमें क्यों नहीं सूझा। गैस चैम्बरों में नाहक इतनी गैस खर्च हो गई।
आईएसआईएस को इस नारे का अरबी तर्जुमा करना चाहिए. उसकी लोन वुल्फ रणनीति के साथ ये एकदम सटीक बैठती है। गरीब पाठकों के लिए जानकारी कि लोन वुल्फ रणनीति में किसी प्रशिक्षण/ संगठन/ बम आदि की जरूरत नहीं होती। आप जहाँ हैं, आपके पास जो है, उसी से दीन का काम कर सकते हैं। जैसे 2016 में बर्लिन में एक धर्मरक्षक ने सोचा कि "दीन के गद्दारों को, ट्रक चढ़ाओ सालों पर." ये एक दम वैसा है जैसे, “प्रेम के गद्दारों पर, एसिड मारों साली पर”। कवि की महानता तो देखिए, कितने बिम्ब बन रहे हैं. आप इसमें जोड़ते चलिए।
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मैंने गाँधीजी को या गाँधीजी पर बहुत कम पढ़ा है, पर जितना पढ़ा है उसके बिना पर यह कह सकता हूँ कि ये गाँधी के तरीके नहीं हो सकते। गाँधी ह्रदय परिवर्तन में जरुर विश्वास रखते थे, परंतु अर्नब गोस्वामी के ह्रदय परिवर्तन का ये तो कोई तरीका नहीं। ये सिर्फ बद्तमीजी है। ये किसी की निजता का अपमान है। आपको अर्नब के कार्य से असहमति हो सकती है, आप उन्हें अपना नजरिया समझाना चाहते हैं, आप उनके कामों के प्रति विरोध प्रदर्शन करना चाहते हैं, आप उनसे सवाल पूछना चाहते हैं? तो अपने सवाल उन्हें प्रेषित करिए, उन्हें ईमेल करिए, उनसे मिलना दरख्वास्त करिए. उनका विरोध करना है तो उनके घर के, उनके ऑफिस के सामने काले झंडे दिखाइए. उन्हें फूल भेजिए.उन्हें अपील करता हुवा लेख लिखिए, विडियो बनाइए. शायद...शायद वो आपसे बातचीत करने को उपलब्ध हो जाएँ. मगर इससे तुरतफुरत शोहरत नहीं मिलती. आप राष्ट्रीय अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर नहीं आते।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आज होते तो शाहीन बाग में नहीं होते : Hindi Article (30 january)
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गांधी का रास्ता लंबा जरूर है,कठिन भी, कई बार लगता है विजय आपको नहीं मिलेगी, कई बार आपको भीतर से तोड़ देता है,(गाँधी कई बार जेल गए कई बर्षों तक जेल में रहे) सोचने पर मजबूर करता है, मगर अंत में मंजिल आपको ही मिलती है. गाँधी भगवान् नहीं थे, बस एक विनम्र व्यक्ति थे। जिन्हें अपने ध्येय पर भरोसा था, अपने तरीकों पर भी। समाज के लिए आन्दोलन आज भी होते हैं परंतु वो विनम्रता मुझे कहीं नहीं दिखती. न किसी मुद्दे के विरोध में, न समर्थन में। बस एक अकड़ है. संख्या की अकड़. देखो, मेरे आंदोलन में इतनी भीड़ है, तुम्हारे में कितनी है? तुम्हारे आन्दोलन में भीड़ पैसे लेकर आई है, तुम्हारे आंदोलन में भीड़ भटकी हुई है। और इस तरह भीड़ पर आधारित आंदोलन धराशाई हो जाते हैं, क्यूँकि किसी भी समाज में किसी भी कालखंड में मूर्खों की भीड़ विचारवान लोगों की भीड़ से बहुत ज्यादा होती है।
गाँधी अगर आज होते तो शाहीनबाग में न खड़े होते. वो इस समय के वाइसराय से मिलने की कोशिश करते, उन्हें खत लिखते. उनसे बात करने की कोशिश करते. उनसे न सही तो बाकी 545 छोटे गवर्नरों से मिलने की कोशिश करते, और छोटे लात साहबों से मिलते, यहाँ तक की देश के हर थाने पर अपनी अर्जी भिजवा देते. कोई कब तक और कितना भागता उनसे? इक छोटा सा वाकया है जिसकी आज के समय से काफी समानता है, उसमें गाँधी का जिक्र जरूरी है. ट्रांसवाल की सरकार ने अपने अँगरेज़ दक्षिणपंथियों के दबाव में एक विधेयक बनाया था, जिसमें वहाँ के सभी एशियाइयों का (फ़िलहाल आप भारतीय पढ़िए, क्यूँकी वहाँ भारतीय ही सबसे ज्यादा थे और अंग्रेजों को भारतीयों से ही नफरत सबसे ज्यादा थी.) फिर से रजिस्ट्रेशन होना था। जिसमें भारतीयों को अपने दसों उँगलियों के निशान देने थे,(भारत में उस समय दसों उँगलियों के निशान सिर्फ अपराधियों के लिए जाते थे), उन्हें एक नया कागज दिया जाय जो उन्हें कभी भी मांगे जाने पर दिखाना पड़े और वो कागज न होने पर उन्हें जेल भेज दिया जाय या वापस अपने देश भेज दिया जाय. दूसरा प्रावधान था कि नए भारतीयों के ट्रांसवाल आने पर रोक हो
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अंग्रेजों का मानना था कि भारतीय असभ्य,गंदे, बदबूदार, लालची जानवरों जैसे होते हैं (बहुत से अंग्रेज आज भी ऐसा सोचते हैं, भारत को सड़क पर हगने वालों का देश मानते हैं, और भारतीयों के साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार करते हैं। ये बात आपको एनआरआई चाचा नहीं बताएँगे.) जो बहुत थोड़े में जी लेते हैं और पैसे कमा कर अपने देश लौट जाते हैं. वो ट्रांसवाल को दीमकों की तरह चाल रहे हैं और अंग्रेजों का व्यापार आदि बर्बाद कर रहे हैं. वहां के दक्षिणपंथ ने वहाँ के गोरों को ये विश्वास दिलाया था कि उनकी सारी समस्याओं की वजह यही भारतीय ही हैं. लायनल कर्टिस जिन्होंने इस अध्यादेश का मसौदा तैयार किया था, उनका कहना था कि यह अध्यादेश आने वाले समय में ट्रांसवाल को पूर्ण रूप से एक वाइटमैन्स कंट्री (कुछ कुछ हिन्दू राष्ट्र जैसा) बनाए रखने में कारगर होगा। गाँधी के नेतृत्व में हो रहे आन्दोलनों के प्रचंड विरोध के बावजूद ये बिल पास हो गया। गाँधी ने हार नहीं मानी. वहां के खूँखार डिक्टेटर जनरल स्मत्ट्स से मिलते- बहस करते रहे. अपने लोगों को लेकर सत्याग्रह करते रहे, लन्दन गए वहां की पार्लियामेंट से भारतीयों के हित की जिरह करते रहे. जेल गए..भूखे रहे..कई साल लगे..जो हासिल हुआ वह तो इतिहास ही है। परंतु एक चीज जो सबसे अलग और दीगर है वो यह है कि उन्होंने अपने जीवन काल में किसी भी अँगरेज़ से नफरत नहीं की। अपनी सभी असहमतियों के बावजूद सामने वाले व्यक्ति का सम्मान किया। उससे साफ़ मन से बिना किसी कुटिल भाव से मिलना और अपनी बात रखना....और ये सम्मान बड़े-बड़े लोग भारत में इस समय खो रहे हैं... गाँधी की फिर से बहुत जरूरत है।
युवा लेखक:- शशांक भारतीय
(शशांक भारतीय बेस्टसेलर उपन्यास "देहाती लड़के" के लेखक भी हैं।)
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