ये बिहारी मिजाज है ये बिहारीपन है

रनिया के याद में पोखर किनारे बंडल भर बीड़ी अकेले पी जाने वाला बबलुआ जब अपनी प्रेमिका के कंठ से सुनता है 'ए जी सुनिये न...आज आपका बहुत याद आ रहा है'

उस समय बबलुआ का आत्मविश्वास ऐसा हो जाता है जैसे मैट्रिक फेल अभ्यर्थी एक्के बार में upsc कबार के फेंक दिया हो।

बबलुआ भी बीड़ी के धुआँ को क्षोभमंडल में ठेलते हुए बोलता है
'ए गोरी जान लेबु का हो'ज

खबरदार जो एक बार भी मरने का नाम लिए तो। मरे हमारा दुश्मन आप क्यों मरें ?

ये सुन के लगता है कि महिलाओं द्वारा ये पहली बार 'खबरदार' शब्द का प्रयोग किया गया होगा। इसी क्रांतिकारी शब्द के बाद पुरुषों में हजारों मिलियन का डर, आशंका, आतंक, खतरा और धौंस बढ़ गया होगा।

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पटना में पढ़ने वाला मोनुआ जब दुर्गा पूजा और दिवाली की छुट्टी में घर जाता है तो कमलेसवा के चाय दुकान से लेकर गुडुआ का सैलून तक भुकुर भुकुर सब इसी को देख रहा होता है।

अरे मोनुआ...बड़ी दिन बाद अइले रे...कहाँ रहे हीं रे

जी चचा पटना में पढ़ते हिये

कौची के तैयारी करते ही रे राजधानी में??

अभी तो IIT करते हिये चचा

ITI करते ही रे....तब ठीक हौ...अभी ग्रुप डी में भी खूब बहाली होते हौ....हौंक के पढ़....नौकरी हो जैतो

IIT के दो भोवेल और एक कंसोनेन्ट के सेंसेक्स में सबसे ज्यादा उतार-चढ़ाव यहीं देखने को मिलता है। इसके बाद मोनुआ के मुंह पे सिर्फ एक ही गारी होता है

'साला तोर अइसन बु*चोंधर ना देखे हैं हम'' IIT और ITI में अंतर पते न हौ.....चलले हें बाप के सलाह देबे।

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इधर सरकारी स्कूल में पिंटुआ और सुनिलवा क्लास की बबितवा के चक्कर में फैटम फैटी कर लिया है। दोनों एक दूसरे का थाइराइड ग्रन्थि पकड़े हुए है।

चिन्हबे नहीं करता है हमको...साला मार के गरदा छोरा देंगे। पिछला बेर गुडुआ से लड़ाई हुआ था...उसको मार के अनहुआ दिए थे...वइसहीं तुमको भी अनहुआ देंगे।

तुम क्या मारेगा रे ' तोर अइसन ढेर देखले हिये।

इसी बीच लड़ाई छुड़ाने पंकजवा आ जाता है और कहता है

गल्फड़वे फाड़ देब सार दुन्नु के...भागले कि न एजा से...पढ़े आया है कि युद्ध करने। रुको आज दुन्नु के घर में जा के शिकायत करते हैं।

तभी पिंटुआ अपने दाँया हाथ से छाती ठोकते हुए कहता है 'जो न रे कह दिहे हमरा केकरो से डर न हौ...ज्यादा बोलबे तो तोरो मारबौ'

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ये बिहारी मिजाज है, ये बिहारीपन है.... कमियाँ भी बहुत हैं। पर इन कमियों के बावजूद भी कई कहानियाँ होती हैं। जब एक किसान बाप का बेटा मुखर्जीनगर में रहकर किताबों के पन्नों पे पिताजी जी को सरसों काटते हुए, आलू कोड़ते हुए और रोपनी करते हुए देखता है।

माँ की फटी साड़ियों को देखता है, दादी की दवाई की थैलियों को देखता है। दिन में करकट की गर्मी और रात में ठंडक को महसूसता है।

देखते देखते चार साल बाद जब संतोष बाबू कलक्टर बन जाते हैं। फिर उनका सात पुश्त तर जाता है। बिहार तर जाता है। 22 मार्च तर जाता है। हम और आप तर जाते हैं। पूरा आर्यावर्त तर जाता है।

ये बिहारीपन एक हौंसला है...एक उम्मीद है....और इसी उम्मीद में फिर से किसी का कलेक्टर बन जाने की आस, इच्छा और अभिलाषा है।

जय बिहार
फ़ोटो- aapnabihar
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