निरंकुश सत्ता, लाठियाँ और सम्मान का टोकन

एक निरंकुश सत्ता से खाई गईं लाठियाँ भी आपके लिए सम्मान का टोकन है। सहेज लीजिए, बने रहिए।

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● Article on JNU during fee hike in hindi

जेएनयू के बारे में मैं अधिकार के साथ नहीं लिख सकता। मैं वहाँ पढ़ा नहीं हूँ। हाँ... पढ़ना हमेशा से चाहता था।  उसपर एक टूरिस्ट की हैसियत से भले लिख सकता हूँ। मैं वहां घूमने गया था। और ये वाकया तभी का है।मैंने कई बार अपने मित्र से किसी की मदद से जेएनयू घुमवाने की सिफारिश की थी। मुझे हिंदी विभाग घूमना था और खासकर वो कमरा देखना था जिसमें नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह जी बैठते थे। उस समय  जेएनयू में पीएचडी के एडमिशन चल रहे थे। मेरे दोस्त ने वहां की एक छात्रा का  नंबर दिया था जो वहाँ पीएचडी कर रही थी। मेरे दोस्त से उसके परिचय का छोर बस इतना था कि वह अपने पीएचडी सम्बंधित आंकड़े जुटाने एकबार लखनऊ गई थी और लखनऊ यूनिवर्सिटी में मिले मेरे दोस्त ने आंकड़े जुटाने में उसकी मदद की थी। सिर्फ इतनी सी  पहचान के बिना पर वह उस  व्यक्ति के किसी दोस्त को जेएनयू घुमाने को तैयार हो गई थी। ऐसी सदाशयता छात्र जीवन में ही हो सकती है और ऐसी स्वछंदता जेएनयू में ही। बाकी जगह के छात्र मनोहर कहानियाँ पढ़कर चालाक हो चुके होते हैं। उसने मुझे मुनिरका मेट्रो स्टेशन आने को कहा था और वहां से ऑटो पकड़कर किसी टी-पॉइंट पर आने को कहा था। ये दोनों जगहें मेरे लिए पहली बार थी, और पहली बार की झिझक बरक़रार थी ही। मुनिरका स्टेशन पर ऑन ड्यूटी सीआरपीएफ के जवान से मैंने पूछा, “ये जेएनयू के लिए किस गेट से निकलना है?” बगल से एक छात्रा गुजर रही थी, जिसने ये सुना। “जेएनयू?...आइये मैं बताती हूँ, इस तरफ से!” मैंने जवान और उस छात्रा का शुक्रिया कहा और उस तरफ बढ़ गया। मैं स्वयं में संकुचित पीछे चल ही रहा था ही कि उसने पलटकर पूछा, “पीएचडी एडमिशन?” मैंने  “हाँ” कह दिया। पता नहीं किस देहाती झिझक में मैंने झूठ बोला था। मैं स्वीकार नहीं कर पाया था कि लखनऊ यूनिवर्सिटी से पढ़ा हूँ और JNU जैसी जगह मेरे लिए टूरिस्ट प्लेस है। वह किलक उठी। उसने चहककर बताया कि फिलॉसफी में शोध के लिए उसका भी एडमिशन हुवा है और मेरिट से उसे  होस्टल भी मिल गया है। उसने कहा आइए साथ ऑटो करते हैं, पैसे शेयर हो जाएंगे। इतनी उन्मुक्तता मैंने पहले कभी नहीं देखी थी और यह उन्मुक्तता जेएनयू जैसे सुरक्षित और स्वच्छंद माहौल में पनप भी सकती है। यह भरोसा किसी परिपक्व समाज ने कितने अर्सों में बनाया होगा। वगरना जिस यूनिवर्सिटी और प्रदेश में मैं रहा वहाँ लड़कियों को हमेशा छेड़खानी, कमेंट बाज़ी का ही डर रहता है। उसके लिए घर से कॉलेज जाना और कॉलेज से घर आना बिना घूरे गए/ताड़े गए/फब्ती कसे गए एक बड़ी उपलब्धि होती है। अपने शोध को लेकर वह बहुत उत्साहित थी। उसने मुझे अपने शोध के विषय और चुनाव के बारे में बताना शुरू किया कि अपनी रिसर्च में वह किन-किन चीज़ों को कवर करने वाली है। मुझे दर्शनशास्त्र में नामों के सिवाय कुछ पता न था मगर अपनी पढ़ाई के प्रति उसके उत्साह से मैं प्रभावित था।

 "यहाँ पढ़ते भी हैं लोग?" ये मेरा पहला एक्सप्रेशन था।  नॉलेज के लिए भी कोई पढ़ता है क्या? हम तो बस नंबर लाने के लिए रटा करते थे। अपने कॉलेज टाइम में मैं एक हाई फाई स्कूल से आए एक लड़के से प्रभावित होते होते बचा था जब उसने क्लास के पहले ही दिन प्रोफेसर से बड़ी विद्वता से पूछा था, "सर दो नंबर के क्वेश्चन के लिए कितना लिखना है और 3 नंबर के क्वेश्चन के लिए कितना लिखना है?" मेरा एंटरटेनमेंट अगले स्टेज पर चला गया जब प्रोफेसर साहब ने कहा "वेरी गुड क्वेश्चन" और बताना भी शुरू कर दिया। उस दिन मुझे मोटा-मोटा समझ मे आ गया था कि हम जिंदगी में क्या कर रहे हैं! सच कहें तो हम कभी छात्र थे ही नहीं। हम बस पर्चे थे। आप अखबारों में पढ़ते हैं ना, रेलवे की परीक्षा के लिए 1 करोड़ फॉर्म भरे गए। हम बस उसी एक करोड़ में शामिल पर्चे रहे जिंदगी भर। हम वहाँ पढ़ते थे जहाँ सबसे अच्छे टीचर वो माने जाते थे जो अपने सारे नोट्स दे दे फोटोकॉपी के लिए। और ईमानदार रहें, परीक्षा में सवाल भी उसी नोट्स में से पूछें। पुरानी सी ग्रेड पिक्चरों में आप देखते हैं ना, "नोटों से भरा बैग लिए , काली पहाड़ी के पीछे मिलना"!  वैसे ही हमारे प्रोफेसर नोट्सों से भरा बैग लिए, जिंदगी भर काली कमाई करते रहते थे। नोट्स जो उन्होंने 20 साल पहले अपने कॉलेज के दिनों में बनाए होंगे। हम प्रैक्टिकल में जुगाड़ लगवाकर नंबर लेने वाले, परीक्षा में प्रोफेसर से इम्पोर्टेन्ट मार्क करवाने वाले लोग रहे हैं। हमारे लिए ये बात चौंकाने वाली हो सकती है कि कोई नॉलेज के लिए भी पढ़ सकता है। ...ये सब करेंगे तो एसएससी बैंक की तैयारी कब करेंगे? और अगर महीने के अंत मे Your A/c is credited with XX वाले डिजिटल मजदूर न बनें तो ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास हमें स्वीकार कैसे करेगा?

मुझे टी पॉइंट पर उतार कर वो चली गई। मैंने उसका नंबर नहीं लिया। मंत्री जी मुझे माफ़ कीजियेगा, आपके निरोध गणना के आंकड़े में मैं योगदान नहीं दे पाया।

टी पॉइंट कोई चाय की दुकान नहीं थी, वह बस सड़क के खत्म होने का "टी" आकार था। चारों तरफ जंगल थे, मैंने सोचा यूनिवर्सिटी कहाँ है? हाई फाई यूनिवर्सिटी की कल्पना मेरे मन में कोई काँच के काम्प्लेक्स की इमारत की तरह थी, एमिटी जैसी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि सैकड़ों एकड़ में फैली छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच, हरे-भरे पेड़ों से घिरे, थोड़ी-थोड़ी दूर पर विभाग होंगे। अंदर नीलगाएँ घूम रहीं होंगी, और भी कई पशु पक्षी। ऐसा तो ऑक्सफ़ोर्ड में होता है कि कक्षाओं के पास हिरण घूम रहे हों। रियल स्टेट के बोझ तली दबी दिल्ली में भी ऐसा हो सकता है? मैंने पैदल ही चहलकदमी शुरू की। सारी दीवारें नारों से, कविताओं से , चे ग्वेरा और विवेकानंद की तस्वीरों से रंगी हुईं थीं। एबीवीपी के छात्र पढ़े-लिखे भी हो सकते हैं, मैंने वहीं जाना। वहाँ की हवा में एक खुलापन था।  लड़के-लड़कियाँ बतियाते गुजर रहे थे, दुनियाभर की अनगढ़, बेबाक , चंचल बातें। जैसे हर जगह के बच्चे होते हैं।मैंने सोचा कि ये लोग iphones की, कारों की, बादशाह के नए गाने की , बॉलीवुड की नई फिल्मों की बातें नहीं करते क्या? वो भी करते होंगे। महिला मित्र के आते ही मैंने पूछा, आधी दिल्ली को ऑक्सीजन तो यही उपवन देता होगा? उसने मुस्कुराकर कहा, "हाँ इसीलिए तो लोगों की इसपर नजर है! यूनिवर्सिटी बन्द करा दीजिये, प्लाट ही प्लाट बिक जाएँगे।"
जब हर जगह लोगों को घुट-घुट कर जीने की आदत डलवाई जा रही हो तो यहीं क्यों लोग खुली हवा में साँस लें? उसने देरी की वजह यह बताई कि छात्रों की कोई बात मनवाने के लिए धरना था तो थोड़ा समय वहाँ चला गया।
"धरना? ? गांधी रहते हैं क्या यहां?... और बात मान भी लेते हैं क्या अथॉरिटी के लोग?

उसने मौन मुस्कान की हामी दी।

अच्छा?..हम तो लड़ ही नहीं पाते। जब प्रशाषन की तरफ से हमारी मार्कशीट में गलती होती है और उसे शुद्ध करवाने के लिए पैसा हम ही भरते हैं, हम वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते कि गलतियाँ सबकी मार्कशीट में आईं हैं और मार्कशीट जहाँ से पुनः छपेगी उसका टेंडर तो वीसी के मित्र जी के पास है। उसका कट वीसी को भी जाता है। हम सोच भी नहीं पाते अपने यहां ये सब और आप लड़ भी लेते हैं।

वह फिर मुस्कुराई, "यहीं से तो जिंदगी से लड़ना सीखते हैं हम...क्योंकि लड़ाई तो हर जगह है...।"

"हाँ ,हर समाज में, हर समय पर एक युद्ध चल रहा होता है...बस वो चल कहाँ रहा होता है, अधिकतर लोगों को ये पता नहीं होता", मैंने सोचा मुझे भी लेखकानापन झाड़ने के लिए एक-आध डायलाग मार देना चाहिए।

आप पहली बार मिले किसी शख्स से इतनी गहरी घनिष्ठ बातें कैसे कर सकते हैं? जल्दी-जल्दी दोस्तियां बना लेते हैं। कैसे हिंदी विभाग बस घूमने जाते हैं और वहाँ के बच्चों से लंबी चर्चा में डूब जाते हैं कि 1936 का वर्ष हिंदी साहित्य के लिए कितना महत्वपूर्ण था या भुवनेश्वर की कहानी "भेड़िये" में अर्थ का दूसरा स्तर क्या था?। बतियाते हुवे सूरज इधर से उधर कब हो जाता है  पता नहीं चलता। क्योंकि बात है वहाँ पर।  मेस में खाना खिलाते हुवे उस महिला मित्र ने मुझे बताया कि उसके परिवार के लोग खेतिहर मजदूर हैं, फिर भी वह यहाँ पढ़ रही है ये JNU का ही प्रताप है। उसने उत्साह से वो कहानी सुनाई कि कैसे यहाँ काम करने वाले सेक्युरिटी गार्ड ने यहाँ का एंट्रेंस क्रैक किया और वो पढ़ाई कर रहा है। उसने बताया कि अगर हस्बैंड वाइफ दोनों पढ़ना चाहें तो होस्टल में उन्हें साथ मे कमरा मिल सकता है। पढ़ाई के प्रति इतनी प्रतिबद्धता। और वो इंग्लिश मैथ या जीएस रट के "बाबू" बनने वाली पढ़ाई नहीं जिसके बाद आदमी टाई पहनने वाला मजदूर बन जाता है। नहीं , बंधनों को काटने और खिड़कियों को खोलने वाली पढ़ाई। चौराहों पर फोटोकॉपी होने वाला ज्ञान नहीं, सुसंस्कृत करने वाला ज्ञान। जन्नत समझते हैं आप। जिजीविषा है तो 5-7 साल इस जन्नत में गुज़ार सकते हैं आप। जन्नत जहाँ आपको व्यक्तिगत खर्चे के लिए ट्यूशन नहीं पढ़ाना, घरवालों के बजट पर बोझ नहीं डालना। ओआसिस समझते हैं आप? दूर दूर फैले रेगिस्तान में बीच कहीं हरी भरी वनस्पतियां उग आती हैं ना, जल और ठंढक लिए। बस वैसा ही कुछ कुछ है। मानता हूँ कि ये ओआसिस देश में सिर्फ एक नहीं और होने चाहिए। यह भी कि इस ओआसिस को कुछ तत्वों ने अपना अड्डा भी बना लिया है। परंतु कुछ ख़राब फलों के लिए पेड़ नहीं काटे जाते।
वहाँ से निकलते ही मैंने अपने दोस्त को फ़ोन किया, "अबे गधे रहे हम लोग जो यहाँ एडमिशन नहीं लिए...थोड़ी मेहनत करते तो हो जाता"

जे एन यू के नौजवानों के साथ खड़े होइये क्योंकि आज वे अपने हित के लिए लड़ रहे हैं। कल आपके हित के लिए लड़ेंगे । जे एन यू के दोस्तों! आज आप सड़क पर हैं लाठियाँ खा रहे हैं। अवार्ड लेते वक़्त इंडियन एक्सप्रेस के राजकमल झा ने कहा था, "criticism from government is a badge of honor" . उसी तरह एक निरंकुश सत्ता से खाई गईं लाठियाँ भी आपके लिए सम्मान का टोकन है। सहेज लीजिए, बने रहिए।

शशांक भारतीय (बेस्टसेलर उपन्यास देहाती लड़के के लेखक की धारदार कलम से)




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