रामधारी सिंह दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय Ramdhari Singh Dinkar : Sanskriti Ke Chaar Adhyaay
संस्कृति का पांचवां अध्याय
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारतीय इतिहास की चार संक्रांतियों को रेखांकित किया था। पहला अध्याय आर्य और आर्येतर जातियों की अंत:क्रिया थी, जिससे भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ। यह भारतीय संस्कृति इतनी सहस्राब्दियों के संघर्षों के बावजूद आज भी अक्षुण्ण है और लोकस्मृति में जीवित रहती है। दूसरा अध्याय तब था, जब बौद्ध और जैन परम्पराओं ने वैदिक संस्कृति को प्रश्नांकित किया और धर्म के नए विकल्प प्रस्तुत किए। तीसरा अध्याय तब निर्मित हुआ, जब मुस्लिम आक्रांताओं का भारत-आगमन हुआ और हज़ारों वर्षों के इतिहास में पहली बार एक विदेशी सभ्यता के प्रति भारतीय समाज उद्घाटित हुआ।
यों तो सिंधु सभ्यता के काल से ही सुमेर और बेबीलोन से भारत के व्यापारिक रिश्ते थे और बुद्ध काल में चीन-देश और मौर्य काल में यूनान से भारत की सम्पृक्ति रही थी, किंतु इनमें से किसी ने भी महादेश पर आधिपत्य नहीं जमाया था। इसी काल से फिर चौथे अध्याय की उत्पत्ति हुई, जिसमें अब यूरोपीय सभ्यताएं भारत आईं- डच, पुर्तगाली और सबसे अंत में बर्तानवी। संस्कृति का यह चौथा अध्याय चूंकि आधुनिक काल में आता है, इसलिए दिनकर की पुस्तक में इसका सबसे सुदीर्घ वृत्तांत है, पुस्तक के लगभग एक-तिहाई हिस्से में फैला हुआ। इसी अध्याय के अंतिम कालखण्ड में महात्मा गांधी का उदय हुआ और उनके नेतृत्व में अखिल भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।
दिनकर ने यह पुस्तक वर्ष 1954 में लिखी थी। हम मान सकते हैं कि संस्कृति का चौथा अध्याय समाप्त होने पर ही वह पुस्तक लिखी गई थी। 30 जनवरी 1948 को चौथे अध्याय की अंतिम तिथि मानना चाहिए, जब गांधी जी की हत्या की गई। तदनन्तर, नेहरू युग का आरम्भ हुआ। दिनकर नेहरू-युग के चरमकाल में वह पुस्तक लिख रहे थे। पुस्तक की भूमिका भी पंडित नेहरू ने ही लिखी थी। अतीत के चार अध्याय तो स्पष्ट थे, किंतु भविष्य में भारतीय संस्कृति किस दिशा में जाएगी, यह अनुमान लगाने का दिनकर के पास कोई साधन नहीं था।
अगर दिनकर आज होते और संस्कृति का पांचवां अध्याय लिखने को प्रवृत्त होते तो उसका कालखण्ड कहां से आरम्भ मानते? वे उसके किन प्रतिनिधि गुणों और युगानुकूल प्रवृत्तियों को चिह्नित करते? अतीत के चारों अध्याय कोई पांच हज़ार वर्ष के दायरे में फैले थे। तब क्या दिनकर पांचवें अध्याय के बारे में कुछ भी कहने से पहले प्रतीक्षा करना चाहते और उसके मूल्यांकन का कार्यभार भविष्य की पीढ़ियों के ज़िम्मे कर जाते? या वे यह मानकर कि विगत सत्तर वर्षों में भारत में इतनी संक्रांतियां और उद्भ्रांतियां फलीभूत हुई हैं, जितनी इससे पूर्व की दो-ढाई सदियों में नहीं हुई होंगी, एक नए अध्याय की पूर्वपीठिका रचने को तत्पर हो ही जाते?
दिनकर का निधन वर्ष 1974 में तब हुआ, जब नेहरू युग का अंत हुए एक दशक बीत गया था। ग़ैर-कांग्रेसवाद का उदय हो रहा था। इसकी परिणति सम्पूर्ण क्रांति, आपातकाल और जनता-सरकार में होने वाली थी। किंतु इनमें से कोई घटना इतिहास की धारा बदलने वाली नहीं कही जा सकती। पंजाब और कश्मीर में उग्रवाद का उदय, क्षेत्रीय और जातिगत अस्मिताओं का उद्भव, हिंदू राष्ट्रवाद का विजयरथ : इनमें से भी कोई नहीं। पांचवें अध्याय का आरम्भ तो वर्ष 1991 के भूमण्डलीकरण से ही माना जाना चाहिए, जिसने भारतीय संस्कृति में ऐसी संक्रांति उत्पन्न की है, जितनी विगत के सहस्रों वर्षों में कभी नहीं देखी गई थी। भारत का जन ऐसा भूला, भ्रमित, उद्विग्न और आत्मचेतना से क्षीण इससे पहले कठिन से कठिन समय में भी नहीं था।
भारत और विश्व : इस युगपत् पर तो पृथक से विचार किया जाना चाहिए, किंतु अतीत में कभी भी भारत विश्व के लिए इतना लालायित नहीं था, जितना भूमण्डलीकरण के बाद हुआ है। अब यवन, म्लेच्छ और फ़िरंगी भारत नहीं आते थे, भारत ही व्याकुल होकर विश्व में व्याप जाना चाहता था और विश्व को अपने में समो लेना चाहता था। सभ्यताओं का सबसे बड़ा संघर्ष वैश्वीकरण की परिघटना से होता है। किंतु वैश्वीकरण मानव-उद्विकास का स्वाभाविक चरण भी है। मानव और सभ्यता की अंत:क्रिया में मानव ही अधिक दीर्घायु सिद्ध होगा, किंतु सभ्यताओं की छापेंं मनुष्य के अंत:करण पर इतनी गहरी होती हैं कि उनके क्षरण की प्रक्रिया एक लोकव्यापी विक्षोभ को जन्म देती हैं। इसी से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी मुखर होता है। किंतु यह मध्यकाल में आदि शंकराचार्य की धर्मध्वजा, मुग़ल काल में भक्ति आंदोलन के उदय और ब्रिटिश राज में स्वामी विवेकानंद के नवजागरण से भिन्न है। उन परिघटनाओं में आत्मगौरव था। जबकि उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तो एक हीनता-ग्रंथि और पराजयबोध से ग्रस्त रहता है।
विश्व और मानव की ऐसी तीखी अंत:क्रिया मनुष्य-जाति के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई थी। यह एक जटिल कालखण्ड है। इसका भाष्य रचने के लिए बड़ी विचक्षण मेधा चाहिए।
पता नहीं दिनकर अपने पांचवें अध्याय का आरम्भ कहां से करते, या करते भी नहीं? किंतु वे इस प्रश्न पर अवश्य रुककर विचार करते कि क्या यह संस्कृति का अंतिम अध्याय है, या इसके बाद भी भारत के जातीय संदर्भों में नए सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यों का उदय होना अभी शेष है?
-सुशोभित