सुप्रसिद्ध उपन्यासकार अमृतलाल नागर की मानस का हंस : Maanas ka Hans - Amritlal Nagar

सुप्रसिद्ध उपन्यासकार अमृतलाल नागर की मानस का हंस : Maanas ka Hans - Amritlal Nagar : महाकवि तुलसीदास के जीवन पर आधारित एक क्लासिक उपन्यास



सुप्रसिद्ध उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर की भी गिनती होती है । उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ श्रीकृष्ण पर आधारित 'नाच्यौ बहुत गोपाल', सूरदास से संबंधित 'खंजन नयन' तथा 'बूँद और समुद्र' मानी जाती हैं । 'अमृत और विष' के लिए उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था । लेकिन जिस रचना ने उनको सर्वाधिक प्रतिष्ठा दिलाई व अमर कर दिया, उसका नाम है- बाबा तुलसीदासजी के सम्पूर्ण जीवन पर आधारित 'मानस का हंस' । 

इस उपन्यास की प्रामाणिकता के संदर्भ में लेखक ने आमुख (आरंभ) में ही सब कुछ स्पष्ट कर दिया है, जो किसी भी पाठक के लिए सबसे पहले पठनीय है ।

कहानी के आरंभ में रात को काफी तेज बारिश, आँधी, तूफान, बिजली का मौसम है । माता रत्नावली अपने घर में मरणासन्न अवस्था में हैं । इसकी खबर लगते ही आसपास के ग्रामीण इकट्ठे होकर खुसुर-फुसुर करने लग जाते हैं, कुछ महिलाएँ घर के अंदर जाकर रत्नावली की चिंता में रोने लग जाती हैं, उनको संभालने में लग जाती हैं । तभी उनसठ वर्षों के बाद रामबोला, यानी, तुलसीदास अपने दो शिष्यों रामू और संत बेनीमाधव के साथ अपने घर की देहरी पर कदम रखते हैं । उसी रात को तुलसीदास के उनके सिरहाने बैठने और हाथ पकड़ने पर रत्नावली की मृत्यु हो जाती है, जैसे वे मरने से पहले बस एक बार अपने पति को देख लेना चाहती थीं, या यूँ कहें कि तुलसीदास को इस भावी का आभास होने के कारण ही वे वापस आए थे । फिर गाँववालों के द्वारा अर्थी उठाए जाने की तैयारी से लेकर ठीक एक साल बाद उसी तिथि को तुलसीदास की मृत्यु तक की कहानी है ।

संत बेनीमाधव को अपने गुरु तुलसीदास की चरितावली लिखनी है, इसलिए वे उनके बारे में सब कुछ जान लेने के लिए दिन-रात तत्पर रहते हैं । आपसी बातचीत के समय लगातार ऐसे प्रसंग आते रहते हैं, जिस पर बेनीमाधव की जिज्ञासा अति तीव्र हो जाती है और उनकी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए तुलसीदास अपने अतीत में जाकर एक-एक घटना की परत खोलते रहते हैं । अर्थात, आरम्भ से अंतिम तक, हर तीन-चार पन्नों के बाद फ्लैशबैक चलने लगता है । और इसी फ्लैशबैक के सहारे उनके जन्म, बचपन, विवाह, प्रेम से लेकर सारे अतीत से अवगत होते जाते हैं । लेकिन लेखक के कलम की यह जादूगरी ही है कि जरा भी भटकाव, रस का बिखराव या सामंजस्य न बिठा पाने की समस्या बिल्कुल नहीं होती है ।

माता रत्नावली के घर, यानी, तुलसीदास के ससुराल में रात को सोने के दौरान उन दोनों की आपसी बातचीत होती है । उस समय रत्नावली की कोई बात तुलसीदास को हॄदय की गहराई तक चुभ जाती है और वे बिना बताए उसी रात को पत्नी को हमेशा के लिए छोड़कर चले जाते हैं । हालाँकि रत्नावली का इरादा गलत जरा भी नहीं था, लेकिन उनकी बातों से तुलसीदास का चैतन्य एकदम जाग उठता है और वे किसी अज्ञात प्रेरणावश ऐसा कर बैठते हैं । विवाह से पूर्व एक वेश्या मोहिनीबाई के आकर्षण में बंध जाते हैं । इन दोनों का आपसी प्रेम, विशेषकर एक दिन जब वे उसकी कोठी पर जाते हैं, तब मोहिनीबाई उनको साथ लेकर भाग चलने की बात कहती है, तब तुलसीदास के नकारने-समझाने पर वह उनको कायर-भीरु जैसे शब्दों से आरोपित कर देती है । यह दोनों प्रसंग काफी उम्दा बन पड़े हैं ।

त्याग दिए जाने के बावजूद अपने पति के प्रति रत्नावली का असीम प्रेम और तपोनिष्ठा भावुक कर जाती है । विशेषकर, जब वे उनको वापस घर ले जाने के लिए दुबारा उनके पास जाती हैं, तब खुद पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए तुलसीदास उनको खुद के सामने नहीं आने देते हैं । यहाँ तक कि चरण-स्पर्श भी नहीं करने देते हैं और दो कमरों के बीच एक पर्दे की दीवार में आपसी संवाद होता है । यह वाला प्रसंग पढ़ते समय तड़पते हुए रोने को मजबूर हो गया था मैं !

'हनुमान चालीसा' कब, कैसे और किन परिस्थितियों में लिखी गई, यह जानना काफी दिलचस्प है ।

उपन्यासकार ने इसको लखनवी शैली में लिखा है । यहाँ लखनवी का अर्थ नवाबों की शैली न होकर वहाँ की आम जनता वाली हिंदी है । उन्होंने खास रूपक, अलंकार, उपमा, खूबसूरत सजावट जैसे तथ्यों पर जबरदस्ती या अलग से मेहनत करने की कोशिश जरा भी नहीं की है । वे अपने भाव और इसको लिखने के मकसद की बिल्कुल सीधी व सही दिशा में लगातार बहते चले गए हैं । इसके कारण यह किताब दो-तीन बार थोड़ी बोझिल तो लगती है, लेकिन अपनी प्रासंगिकता, उपयोगिता और एक-से बढ़कर एक रोचक प्रसंगों के कारण अपने पाठकों को फिर खींच लेती है और समापन तक भी ले जाती है ।

जब तुलसीदास अपने दोनों शिष्यों के साथ मुगलों के द्वारा पकड़ लिए जाते हैं, तब एक मुस्लिम सुंदरी को लेकर मुगलों की आपसी ईर्ष्या-लड़ाई और तुलसीदास के द्वारा मुगलों के सरदारों को अपनी ज्योतिष-विद्या के द्वारा प्रभावित कर जाने की घटनाएँ काफी रोचक-दिलचस्प बन पड़ी हैं । इन घटनाओं को प्रकट करते समय लेखक की उर्दू शब्दों पर जबरदस्त पकड़ पाठकों का दिल बाग-बाग कर जाती है । 

सभी का कोई-न-कोई लक्ष्य अवश्य होता है और किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए पूर्ण समर्पण, लगन व एकाग्रता की आवश्यकता होती है । बाबा तुलसीदास का जीवन प्रारंभ से अंत तक अगणित-अनवरत संघर्षों की अग्नि में तपकर निकले हुए कुंदन के समान है, इसलिए यह उपन्यास प्रत्येक व्यक्ति के लिए पूर्णतः प्रेरक है । खासकर, अध्यात्म, भक्ति और अपनी आस्था के प्रति समर्पित लोगों के लिए तुलसीदास की रामभक्ति को पूर्णतः समर्पितवाली यह कहानी बहुपयोगी, निरंतर पठनीय और हमेशा के लिए संजोकर रखने लायक है । 

आज 'रामचरितमानस' की गिनती विश्व के महानतम-सर्वप्रसिद्ध ग्रंथों में से एक के रूप में की जाती है । यह प्रत्येक सनातनी के लिए श्रद्धास्पद-पूजनीय है, लेकिन तुलसीदासजी को इसको लिखने की प्रेरणा कब-कैसे मिली, इसको लिखने की शुरुआत से समापन तक और बाद के कुछ सालों तक भी उनको अयोध्याजी से लेकर काशीजी तक में तत्कालीन पाखंडी-लंपट-ईर्ष्यालु पंडितों व उनके चेले-चपाटियों के द्वारा किन-किन परेशानियों से होकर गुजरना पड़ा, यहाँ तक कि उनको जान से भी मारने की कैसे कोशिश की गईं; यह सब जानना बेहद ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक है । मुझे इस उपन्यास में सबसे शानदार, आकर्षक, रोचक व प्रेरणादायक प्रसंग यही लगा ।

- प्रियरंजन शर्मा
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