प्रेम की नियति ही है अधूरा रह जाना। एक समय आएगा आप पाएंगे कि सब कुछ बदल रहा है। हर समानुपाती बात व्युत्क्रमानुपाती जैसा लगने लगा है।
बदलने का क्रम भी बहुत धीमा होता है, पर होता है। बिल्कुल नग्न, हम देख नहीं सकते बस महसूस कर सकते हैं।
हम पाते हैं कि छुअन में भी अब वो स्पर्श नहीं रही। बातों की खुशबुएँ अब भारी लगने लगी है। साँसों के बीच की ऊर्जा ग्लेशियर की तरह पिघल कर सब कुछ बहा रही है।
यूँ तो हर बात का एक मतलब होता है, हर मतलब का एक राग और हर राग की अपनी एक ध्वनि। पर एक ऐसा भी समय आता है जहाँ किसी का कुछ भी मतलब नहीं रह जाता।
आप अकेले खड़े होते हैं। बिल्कुल अकेले। एकदम मौन दूर किसी वस्तु को देखते हुए।
विज्ञान कहता है जब कोई वस्तु गति कर रही हो तो उसके द्वारा तय की गयी दूरी समय के समानुपाती होता है। लेकिन तब क्या होगा जब गति ही रुक जाए ?
पिछले दिनों एक मित्र को यूँ ही प्रेम हो गया। फिर क्या दूरी और समय के चार्ट पर एक्सपोनेंशियल ग्राफ बनाते और हर बात के उत्तर पर हंसते, मुस्कुराते।
मैं जान गया कि प्रेम की भी अपनी एक अवस्था होती है। ये उसी अवस्था में हैं।
चूँकि मेन्स में उनका भी हिंदी साहित्य ही था। तो धीरे धीरे करीब होते चले गए। एक दिन अचानक हमको फोन किये और "प्रधानमंत्री एक कविता रोज कार्यक्रम" के तहत रोज एक कविता सुनाने लगे।
ये कारवां चलता रहा। मैं क़ई दिनों तक उनके इस अटल कार्यक्रम को साक्षात उनसे सुनता रहा और जाना कि लोग प्रेम में कविता का साथ क्यों चुनते हैं।
एक दिन मैंने कहा दिया। आप अच्छा लिखते हैं किसी पत्रिका या अखबार में इसे छपने क्यों नहीं भेजते।
फिर क्या तब से मुझे रोज चार पाँच कविताएँ सुनाने लगे। मुझे अपनी जान की फिक्र थी तो अगले दिन से मैं अपना फोन बंद रखने लगा। नहीं तो पता चलता कि प्रेम में पड़े एक कवि ने अपनी कविता के बाण से एक युवा लेखक की जान ले ली।
समय बीतता रहा। क़ई दिनों बाद तक वो मेरे लाइब्रेरी में नहीं दिखे। मैं सोचता रहा कि आखिर ऐसा क्या हुआ....
और वो फिर अचानक किसी दिन मिले। लेकिन इस बार वो पहले की तरह नहीं मिले। चेहरे पर मुस्कान सूखे पत्तों की तरह झर रहे थे। आँखें ऐसी जैसे स्वपन की जीवन रेखा खत्म हो गयी हो और मन ऐसा जैसे दुखों का भंडार घेर रखा हो।
हमने हाथ पकड़ा और कहा। कैसे हैं। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया।
सोचता हूँ प्रेम के खत्म हो जाने पर आदमी के पास क्या शेष बच जाता। कुछ भी नहीं?
और हल्के स्वर में उन्होंने भी यही कहा- कुछ भी नहीं।
इस कुछ नहीं और बहुत कुछ के बीच की सीमा रेखा पर खड़ा होकर मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि जीवन का एक सच ये भी है कि जब लोग दूर जाते हैं तो आपकी वजह से नहीं, बल्कि अपनी वजह से।
उदासी, मायूसी, रंजीदगी, अनासक्त, विरक्त के आस पास उन्हें देखकर मुझे कुछ नहीं सूझा। मैंने एक पन्ने पर श्रीकांत वर्मा की पंक्तियाँ लिखी और उनके हाथ छोड़ आया। कि-
सच है तुम्हारे बिना जीवन अपंग हैलेकिन! क्यों लगता है मुझेप्रेमअकेले होने का हीएक और ढंग है।
सच तो ये भी है कि कविताओं पर हम कितने भी हास्य चुटकुले और मीम क्यों न बना लें, लेकिन जब सब कुछ खत्म हो रहा होता है तब भी उम्मीद होती है कि कविताएँ हमें सम्भाल लेगी।
- अभिषेक आर्यन
Tags
हिंदी-कहानी