कहा तो ये जाता कि समय के साथ सारे दर्द भर जाते हैं...फिर भी कुछ बातों को भूलना कहां आसान होता।
चाहना , टूट कर चाहना और टूट कर बिखर जाना तीनों प्रेम की अलग अलग अवस्थाएं हैं। जैसे नदियां डेल्टा और एस्चुरी बनाकर अपनी यात्राएं समाप्त कर लेती हैं। हम सब भी चाहने से शुरू होकर टूट कर बिखरने तक अपनी अपनी यात्राएं समाप्त कर लेते हैं।
एक मायने से कुछ नदियां बारहमासी होती हैं।
पर लोग?
लोगों का कुछ नहीं पता। उनकी कोई समय सीमा नहीं होती। पहले लोग अच्छे वक्त में आते थे और बुरे वक्त में छोड़ जाते थे। अब वो अच्छे वक्त में आते हैं और बुरा वक्त देकर छोड़ जाते हैं। कई बार वो पीड़ा, वो वेदना, वो व्यथा सब असहनीय सा हो जाता।
कभी जो बेहद खास और प्रिय रहा था, अब वो नहीं है। कभी जहां बातें ही खत्म न होती थी, अब वहां बातें ही नहीं होती। जहां हर बातों का उत्तर समय से आता था अब वहां मौन और चुप्पियों का अंधेरा जाल है। वो पेड़ मुरझा गए जिसपर कभी पंक्षियों के मधुर गीतों का राग था। वो स्पर्श, वो छुअन....सब झूठ था।
कभी जो पूछ लो तो कहेंगे व्यस्त था इसीलिए उत्तर नहीं दे पाया।
सोचता हूं अचानक ऐसा क्या हो गया कि बातों और जज्बातों में इतनी व्यस्तता आ गई।
क्या हम सच में इतने व्यस्त हैं या फिर हमारी प्राथमिकता बदल गई?
और ये जो किसी और के लिए हमारे संबंधों की प्राथमिकता खो रहे हो, कभी सोचे हो अगर वो भी तुम्हें न मिला तो क्या करोगे?
झूठी व्यस्तता और प्राथमिकता के बीच आकर यही लगता है कि हम न नदियों के लिए पानी बचा पा रहे, न आंखों के लिए आंसू। हमने चट्टानों को तोड़ने की मशीन बनाई और खुद ही अपरदित होते चले गए।
न्यूटन के गति का तीसरा नियम कहता है हर क्रिया के लिए विपरीत प्रतिक्रिया होती है। पर लगाव और विचारों के गति का नियम बिल्कुल अलग है। हम जिस पर जितना अधिक जोर लगाते, जिसको जितना अधिक अपने पास रखने का प्रयास करते वो उतना ही दूर चला जाता।
हम आने वाले से ज्यादा महत्ता जाने वाले को देते हैं, और अंत में दोनों में से किसी को भी न रोक पाते। हर आता हुआ व्यक्ति जाता हुआ प्रतीत होने लगता है। धर्मवीर भारती लिखते भी हैं- आकर्षण जितना तीखा होता है, लोग उतना ही दूर भागते हैं।
पर भागने के इस क्रम में हम अपनी मानवीयता और मनुष्यता खो बैठे हैं। कई बार लगता नदी बचाओ, बाघ बचाओ और पर्यावरण बचाओ अधिनियम को बाद में देखेंगे, पहले मनुष्यता बचाओ अधिनियम को लेकर कुछ होना चाहिए।
जब आदमी आदमी ही न रहेगा तो फिर ऐसे जीवन का क्या मोल। ऐसे मित्र, ऐसी दोस्ती, ऐसे रिश्ते, ऐसे प्रेम, ऐसे संबंध किस काम के जब हम आंसू की तरलता और हृदय की नमी को ही न पहचान पाए। क्या करेंगे सब कुछ पाकर जब भीतर से ही खोखले हो चुके होंगे।
खोखले भी इस तरह कि अब आदमी आदमी के बीच संवाद ही खत्म हो गया है। इन बेचैन चुप्पियों और मौन के बीच मुझे एकांत श्रीवास्तव की वो कविता याद आती है जिसमें वो एक चिड़िया से कह रहे होते हैं-
ओ चिड़िया
तुम बोलो बारंबार
गांव में, घर में, घाट में, वन में
पत्थर हो चुके आदमी के मन में।
Writer- Ahishek Aryan