इधर जाना कि कितना कुछ पीछे छूट सा गया। कई बार कुछ पाने के लिया कितना कुछ खोना पड़ जाता है।
कई लोगों के अच्छे पोस्ट छूट गए, कई लोगों का जन्मदिन छूट गया, कई लोगों के संदेश छूट गए, यहां तक कि कई लोगों से मित्रता भी छूट गई।
लेकिन इधर ये भी जाना कि छूटने के इस क्रम में बेरोजगारी का धब्बा छूट जाना भी कितना सुखद है।
दिन भर की पढ़ाई के बाद रात सोने से पहले कई बार लगता था कि तब क्या होगा जब पता चलेगा कि अब इसके बाद कोई परीक्षा नहीं बची...न ही फॉर्म भरने की उम्र बची है।
और फिर मन कांप उठता था।
बाप के भेजे पैसे पर कुछ बन जाने की उम्मीद एक फर्जी रेखा की ओर बढ़कर शून्य का रूप ले लेती थी।
सोचते सोचते रात सुबह में और फिर सुबह रात में कैसे बदल जाती थी इसका कोई डिस्प्लेसमेंट रिएक्शन ही नहीं, न ही इस संघर्ष को डिफरेंसिएट कर सकते न ही इंटीग्रेट।
सोचता हूं कैलकुलस वालों ने इतने प्रश्नों को डिफरेंसिएट करने की विधि बताई पर एक जीवन संघर्ष को इंटीग्रेट नहीं कर सका।
क्या करें ऐसे गणित और विज्ञान का।
इससे अच्छा तो साहित्य ही है कम से कम कमज़ोर पड़ जाने पर अपने शब्दों और भावों से थामता तो है।
लेकिन ये भी कैसे जाना जाए कि इस संसार में अपने बाप के भेजे पैसे से अधिक आपको कोई और नहीं थाम सकता।
इस बाप के भेजे पैसे में ही संसार की सबसे सुंदर कविता और धैर्य बांधे रखने की क्षमता है।
और फिर एक समय आता है जब पता चलता है आपका चयन हो गया है। जितने आंसू असफल होने पर बहते थे उससे अधिक सफल हो जाने पर बह रहे।
दुख, दर्द, उदासी तनाव...सब सुख के मिल जाने की पूर्व घटनाओं का एक सुखद पन्ना है।
वो पन्ना जिसपर न जाने कितनी परीक्षाओं में असफल हो जाने का रौल नम्बर है, प्री, मैंस और मेरिट में असफल हो जाने की उम्मीदों के साथ हजारों आंसुओं के दुख भरे बूंदे हैं, वो चीख और दर्द है जिसे पाने में खुद को खपा दिया।
कई बार लगता है हम मां बाप और अपनों के सपनों के लिए ही जीते हैं। और हरबर्ट ने लिखा भी है - सबसे संक्षिप्त उत्तर है करके दिखाना। आज केंद्रीय सचिवालय, भारी उद्योग मंत्रालय, दिल्ली पाकर मैं अपने सपनों को उनके चेहरे पर देख खुश हो रहा हूं।
उन अपनों का शुक्रिया और आभार जिनके स्नेह और आशीर्वाद ने मुझे यहां तक पहुंचाया। 🙏
आपका अभिषेक