देहात की लड़कियाँ
ज्यादा संवेदनशील होती हैं।
वो स्कूल जाने से पहले
खूँट आती हैं बकरियों को
घर के पीछे वाले
महेंदर बाबा के खेत में
वो लौटते वक्त गले लगाकर
चूम लेती हैं बकरियों को,
उनके प्यार और सजीवता को
क्षण भर में ही
बकरियाँ भी
संवेदनशील हो जाती हैं
वो साथ लौट आना चाहती हैं
घर तक पीछा करते
देहात की लड़कियों के
हाथ और प्यार थामे।
देहात की लड़कियाँ
ज्यादा संवेदनशील होती हैं।
वो स्कूल की घण्टियाँ सुन
दौड़ पड़ती हैं बस्ता लेकर
रास्ते में गुड़िया, सरिता, रेखा को
पीछे से आवाज लगाकर
छूना चाहती हैं उनकी संवेदनाओं को
शुमार होना चाहती हैं उनकी ठिठोलियों में।
वो पानी पीने के बहाने
माटसाब से छुट्टियाँ लेती हैं
बाहर निकलते ही
गणित के फॉर्मूलों को भुलाकर
हवा खाते हुए
आसमान में गप्पे लड़ाती हैं।
देहात की लड़कियाँ
ज्यादा संवेदनशील होती हैं।
वो छुट्टियों के वक़्त
सीने के पास बस्ता लेकर
खिलखिलाते हुए निकलती हैं
वो चार बातों पे
चार और बातें बोल जाती हैं।
वो फूलों की तरह
एक-दूसरे से टकराती हैं।
वो घर पहुँचते ही छत पे पसारे
कपड़े को उठाती हैं, समेटती हैं
समेटते वक़्त बाबू जी के गमछा को
सबसे ज्यादा दुलारती हैं
बाबू जी के मेहनत को
सिर्फ देखती ही नहीं
उसे छूती और महसूसती भी हैं।
देहात की लड़कियाँ
ज्यादा संवेदनशील होती हैं।
वो माँ की अलसायी उँगलियों को
नेलपॉलिश से रँग कर
खूबसूरती और खुशियाँ देती हैं
थकी हारी माँ के पैरों को
आलता से रँगती हैं
असल में वो रँगती कम
स्पर्श ज्यादा करती हैं।
वो अपने हाथ में
आईना लेकर
माँ के आगे बैठती हैं
अपनी चोटियाँ बँधवाती हैं
विभिन्न प्रकार के विषयों पर
गलबात करते हुए
माँ की मनोहरता और वात्सल्य को
उसी आईने में देखती हैं
एक ही बात पे कई दफे मुस्कुराती हैं।
देहात की लड़कियाँ
ज्यादा संवेदनशील होती हैं।
वो माँ की हड्डियों में तेल लगाते हुए
नानी की तबियत पूछ लेती हैं
शाम होते ही
माँ से पूछ लेती हैं-
आज कद्दू बनिहे कि परोर ?
वो भीषण गर्मी में भी भींगकर
तावा पे रोटियाँ सेंकती हैं।
वो बाबूजी को खाना देती हैं
लोटा में पानी और
बैठने के लिए पीढ़ा देती हैं
उनके थाली में चार रोटियाँ देकर
दो रोटियाँ गिनाती हैं
देहात की लड़कियाँ अपने पिताजी को
दो रोटियाँ ज्यादा खिलाती हैं।
दो रोटियाँ ज्यादा खिलाकर
वो बाबूजी को अथाह प्यार देती हैं
इसीलिए देहात की लड़कियाँ
ज्यादा संवेदनशील होती हैं।।