मुझे इश्क हो जाता है : हिंदी कविता

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मुझे इश्क हो जाता है
कभी-कभी माँ के नाख़ून पे लगी 
लाल रंग की नेलपॉलिश की शीशियों से
कभी उनकी चूड़ियों से टूट कर गिरी मोतियों से
कभी उन टूटे मोतियों पे सटे बुरादों से।

कभी-कभी माँ के लिलार पे सटे 
दो या चार नम्बर वाली मैरून रंग की बिंदियों से
कभी उन बिंदियों पे सटे वृताकार सितारों से
कभी उन सितारों पे चमकते रौशनियों से।

कभी-कभी माँ द्वारा गूंथे हुए 
आटे की गोलाकार लोइयों से
कभी चौकले पर बेली हुई त्रिभुजाकार पराठों से
कभी उन पराठों में लपेटी हुई आलू के भुंजियों से।

कभी-कभी उस हरेक माल के डिब्बों से
डिब्बों में पड़ी हुई माँ के रोलगोल वाले झुमकों से
पायल, पोंड्स के डिब्बे और रंग-बिरंगी चूड़ियों से
कभी उन डिब्बों में पड़ी सेफ्टी पिन के गुच्छों से।

कभी-कभी ताखे पे पड़ी मंजन के डिब्बों से
कभी तेल की कटोरी तो कभी माचिस की तीलियों से
कभी दादी की दवाई की थैलियों से
कभी जमीन पर गिरे हुए एक रुपये के सिक्कों से।

मुझे इश्क हो जाता है
कभी-कभी मनोहर पोथी 
और कभी गुड इंग्लिश जैसी किताबों से
कभी सिलेट और कभी उसी सिलेट पर गिराये गए पानी की बूंदों से
कभी माटसाब द्वारा दिए गए पेन्सिल की छड़ियों से।

कभी-कभी गणित और कभी 
अंग्रेजी की चार लाइन वाली कॉपियों से
कभी उन कॉपियों में खाली छोड़े गए शुरू के दो पन्नों से
कभी उन्हीं कॉपियों पे नटराज की इंच से पारी गयी चौथाइयों से।

कभी-कभी जूनियर इंग्लिश ट्रांसलेशन वाली किताबों से
कभी साहनी और भार्गव की पॉकेट डिक्शनरियों से
कभी डिस्कवरी वाली इंस्ट्रूमेंट बॉक्स से तो कभी 
उसी इंस्ट्रूमेंट बॉक्स में छुपाए गए दो रुपये के सिक्कों से
कभी फटे हुए स्कूल के जूतों से तो कभी रविवार की छुट्टियों से।

मुझे इश्क हो जाता है
कभी-कभी स्कूल में फर्स्ट आने से
कभी बबिता कुमारी का फर्स्ट आ जाने से 
कभी स्कूल में प्रार्थना कराने से
कभी क्लास का मॉनिटरबन जाने से
हल्ला करने के बावजूद बबिता कुमारी का नाम छुपाने से
कभी रेखा मैडम के प्यार तो कभी सर्वेश माटसाब के दुलारों से।

कभी-कभी बेवजह साईकिल की घण्टियाँ बजाने से
कभी दो रुपये के सोलह आइसक्रीम खाने से
कभी बाबू जी के कंधे पे मेला घूम आने से
तो कभी किसी दिन रूठ कर भूखे पेट सो जाने से।

कभी-कभी अपने पर्स में बबिता की फोटो छुपाने से
कभी प्रेम पत्र लिखते वक़्त चलती उन ठण्डी हवाओं से
कभी यूँ ही किसी से रास्ते में टकरा जाने से
सॉरी बोलना, फिर आगे बढ़ जाने से।

कभी-कभी बस पे खिड़की वाली सीट मिल जाने से 
कभी मेरे सीट के बगल में किसी लड़की का बैठ जाने से
कभी उन बसों पे बिक रही बिसलेरी की बोतलों से
नारियल के लड्डुओं और तीखे झालमुड़ियों से।

कभी-कभी बनारस की बोली और साड़ियों से
कभी घाट किनारे प्रेम की कोई किताब पढ़ जाने से
कभी डूबते सूर्य को निहारने से तो
कभी किसी भिक्षु के कटोरे में दस का नोट गिरा आने से।

हां, मुझे इश्क हो जाता है कभी-कभी
क्योंकि मैंने कभी देह से इश्क किया ही नहीं
मैंने आत्मा से इश्क किया।



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