धर्म मानवता और रेल सफर



धनबाद-पटना इंटरसिटी का इंतजार करते हुए हमने खीरे वाले से कहा 'बाबा एगो खिच्चा खीरा छिलहो तौ'

तभी स्पीकर पर एक सुमधुर महिला की आवाज आती है 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें दिल्ली जाने वाली ट्रेन पूर्वा एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या एक पर आ रही है। 

खीरे का पहला कौर लेते हुए...हम बाबा से पूछ बैठे 'आँय बाबा पहले पूर्वा आवो है कि इंटरसिटी?'

ए बाबू एकर हिसाब किताब त मोदिये जी से पूछहो...मनमतंगा हको भारतीय रेल...कभी उ आगे कभी उ पीछे...अ लेट सवेर अलग से। वैसे कहाँ जैभु ?...बाबा पटना जैबै...त जे पहले आ जाए ओकरे पे चहड़ जा। 

अब पूर्वा एक्सप्रेस प्लेटफार्म एक पर आ चुकी है। AC वाले लोग फलाँग मुक्त हैं। स्लीपर वाले फलांग मार रहे हैं...जनरल वाले फलांग पर फलांग मार रहे हैं। ए भैया हमको घुसने दीजिये न...ए यार आगे बढ़ो...हई साला ठेल काहे रहे हो...पीछे से न ठेल रहा है जी...हम क्या करें। ए चाची अपन झोलवा साइड करहो नै...धत्त यार पहले निकलने तो दो...घूँसे जा रहे हो। ए भैया गेट पर से हटियेगा। 

अंदर खिड़की के पास बैठी एक महिला बाहर झाँकते हुए कह रही है 'अरे पिंटुआ रेखवा के कहमी कि चौर अ दाल पलंग के नीचे बुलुक्का डिब्बा में रखल है' चाची के पैगाम से लग रहा है कि इस डिजिटल सफर में गाँव अभी भी जिंदा है। 

मैं भी गिरते-बजड़ते ट्रैन के अंदर घुस चुका हूँ। बोलबम वाले अलग लहालोट हैं। उनको लग रहा है रेल मंत्रालय इन्हीं के अधीन आता है। भारतीय रेल को मंत्री के रूप में इन्हीं काँवरियों में से एक बहुमत दल का नेता चुन लेना चाहिए। 2 मिनट का स्टॉपेज और इतना हु-हज्जत के बाद पूर्वा अपनी गति पकड़ ली है। पर यकीन मानिए यही है जीवन का वास्तविक सफर और वास्तविक सफर की मौलिक गति। 

मैं अंदर की ओर आगे बढ़ रहा हूँ...बैग को किसी तरह ऊपर वाले सीट पे रखा दिया हूँ, कुछ देर में देखता हूँ तो बोलबम वाले चचा हमारे बैग पर मुड़ी धर के मुँह फाड़ते हुए थकान मिटा रहे हैं। आते वक्त माँ किशन हलवाई के यहां से लड्डू खरीद कर दी थी, मैं समझ गया हूँ कि किशनवा का सुप्रसिद्ध लड्डू या तो पेड़ा या फिर बुनिया का आकार ले लिया होगा।

आगे देखता हूँ कि विंडो साइड सीट पर बोलबम का गंजी पहने एक चाचा बैठे हैं। उसी सीट पर किनारे घुसक के बच्ची के पिताजी और पिताजी की ही गोद में एक सीरियस बच्ची बैठी है। चेहरे पे बेचैनी और लंबी लंबी सांसे ले रही है। इस क्रिया को अधिक बार देखते हुए मैं उनके पिताजी से पूछ बैठा हूँ फेफड़े में दिक्कत है क्या? उन्होंने कहा हाँ। यार प्रमोद इस बच्ची को कम से कम एक सीट तो मिलनी चाहिए कहते हुए मेरे आँख आंसू से डबडबा गए। भीड़ बहुत है बोगी में पर बच्ची को रेस्ट चाहिए नहीं तो सिस्टोलिक, डायस्टोलिक बढ़ने से और दिक्कत होगी। मैं पानी से अपने रुमाल को भींगाते हुए उनके पिताजी से कह रहा हूँ ये लीजिए चेहरे को इससे पोछिये।

हमने बोलबम गंजी वाले चचा से कहा भैया तनिक उठ जाइये बच्ची काफी सीरियस है लेकिन काहे को सुनेंगे वो। इधर मेरा मित्र किसी दूसरे गंजी वाले से कह रहा है चाचा तनिक उठ जाइये न बच्ची काफी सीरियस है...फेफड़े में दिक्क्त है...लंबी लंबी सांसे ले रही है। लेकिन नहीं....उठेंगे...सब एकदूसरे का थथुन देख रहे हैं। 

यार हद है। हिंदुत्व के नाम पर कहाँ से ले आते हो इतनी निर्दयता। थोड़ा तो शर्म करो। बोलबम, हरहर महादेव और जय श्री राम का गंजी पहनकर एक बच्ची के लिए तुम खड़े नहीं हो सकते तो कपार फोड़ लो अपने धर्म और पवित्र ग्रन्थों के नाम पर। ऐसी मानसिकता को ढ़ो कर तुम तिब्बत के कैलाश और चीन के कुनलुन भी चले गए तो क्या फायदा। धर्म छोड़ो कम से कम मानवता के नाम पर तो एक सीट खाली कर दो। बस 3 घण्टे की सफर ही तो है पटना का। 

इतने अनुरोध और गुजारिश के बाद बगल वाले केबिन में एक व्यक्ति ने अपना स्थान छोड़ दिया। बच्ची अब रेस्ट में है ईश्वर उसको जल्द ही स्वस्थ करें। जरूरत पड़े तो ऐसी मदद करते रहिए... यकीन मानिए इससे बड़ी क्रिया दुनिया में और कुछ भी नहीं है। 

आगे की बातचीत से पता चला कि वो व्यक्ति एक शिक्षक हैं। आज फिर से सिद्ध हुआ कि मानवता धर्म से काफी ऊपर की चीज है। गुरु सभी ईश्वरों में सर्वोपरि हैं। 

जाते जाते गुरुजी ने बस इतना ही कहा ...पटना ही उतरना है? जी हाँ सर। हमेशा ऐसे ही बने रहना। मैंने उनका पैर छुआ और आँख में आँसू लेते हुए आगे बढ़ गया। 

जय हो।
अभिषेक आर्यन
Previous Post Next Post