बाबूजी नीम के डाढ़ी लाबे हमहुँ जइबै- नागपंचमी की गीतमय कहानी


बाबूजी नीम के डाढ़ी लाबे हमहुँ जइबै- नागपंचमी की गीतमय कहानी

आज चाची चार बजे भोरे से ही उठ के घर बुहार रही हैं, गीत गुनगुनाते हुए गोबर से दुआरी लीप रही हैं। मानो इनके भीतर समूचे संसार का उमंग, उत्सव, संस्कृति, त्योहार समाया हुआ हो।

इधर गुडुआ लीपा हुआ क्षेत्र को टप कर अंदर से बाहर आना चाह रहा है। चाची प्यार से गुडुआ को डाँटते हुए कह रही हैं 'अरे बेटा चप्पल खोल के अइहाँ...न त सब लीपल कचाहिन हो जयतै' ढीठ गुडुआ कहाँ मानने वाला था, कचाहिन करते हुए बाहर निकल ही आया है। 

बाबू जी कहाँ जा रहलो साईकल से ?

गुड्डू बगइचा जाइत हिये...नीम के डाढ़ी लाबे। 

बाबूजी हमहुँ जइबै। माई कही न तू बाबूजी से हमरो ले जाए ले। 

अब गुडुआ बाबूजी के साथ साईकल के कैरियर पर बैठ कर बगइचा चल दिया है। साईकल का पैंडल मारते हुए बाबूजी गुडुआ से कह रहे हैं 'पैर फरका रखिहा गुड्डू न तो अँगुरिया पिसा जैतो' अब गुडुआ दोनों पैर पसार लिया है, हवा खाते हुए बाबूजी से कह रहा 'बाबूजी तनिक और स्पीड चलाहो न'

उसे अचानक से ख्याल आता है कि रास्ते में बबिता का घर भी है। पैर पसार कर तेज गति में भर मुँह हवा खाने वाला गुडुआ अब बाबूजी से कह रहा है 'बाबूजी अब तनिक धीरे भी चलहो न डर लगते है' दरअसल डर तो एक बहाना था वो मंद हवा को स्पर्श करते हुए बबिता को, अपने निश्छल प्रेम को ठहर कर देखना चाह रहा था। 

इधर चाची घर दुआर लीप के एकदम चमका दी है। लग रहा है कि कोई त्योहार है। नागपंचमी है। कुछ देर में बाबूजी और गुडुआ नीम का डाढ़ी लेकर घर पहुचते हैं। चाची नीम का पत्ता धो रही हैं। घर के हरेक दुआरी, खिड़की के चौखट में नीम का पत्ता लटक गया है। 

आज टोला मोहल्ला सब कोई नीम के दतुअन से मुँह धो रहा है, बिना ये परवाह किये कि नीम में कितना प्रतिशत कड़वाहट होता है। उधर मुरारी चाचा पलोथिन में एक पसेरी आम लेकर घर जा रहे हैं। दुआरी पे बैठल चाची मुरारी चाचा से पूछ लेती हैं 'कौन आम ललहो मुरारी... कैसे किलो दलको' 

40 रुपये किलो दलकै भौजी। तू कैसे ख़रीदलहो? 

हमर त नइहर से भाई भेजलखिन हल आम 10 किलो, त आम न खरदलियै। खली कटहल के कौआ खरदलिये हैं।

बगल में गुडुआ खड़ा होकर मुँह धो रहा है। मुरारी चाचा मौज लेते हुए गुडुआ से पूछ रहे हैं 'का बेटा आज मौसी कौची कौची खाना बनइते हथुन'

गुडुआ बेचारा लजा जाता है। मन ही मन मुरारी चाचा को 'मुररिया' कह कर गरिया देता है। 

अब दस बजने को है। उधर बाबूजी निहा रहे हैं। इधर चाची गर्म रिफाइन में पूड़ी छान रही हैं। इधर आलू भी सिझ गया है, गुड्डू बाबू आलू छिलते हुए चाची से पूछ रहे हैं ' माई आलूदम ही बना रहनी है न?'

हाँ बेटा आलूदम ही बना रहलियै हें। 

उधर खीर भी डबक रहा है। डब्बू पे चावल का दाना लेते हुए चाची अपने अँगुली से दबा कर देख रही हैं कि सिझा है कि नहीं। नहीं अभी नय सिझा है थोड़ा सा आँच और लगे देते हैं, सोनहा भी लगेगा।

फिर चाची भोलेनाथ का पूजा करेंगी। शिव जी को दूध और लावा चढ़ाएंगी। तब जाकर खीर, पूड़ी, आलूदम, आम और कोआ का स्वाद लिया जाएगा। इस खुशी से, इस क्रियाकलाप से, इस त्योहार से जिंदगी चमक उठेगी। त्योहार एक अलग ही खुशी लेकर आते हैं चाहे सोमवारी, मंगलवारी हो या तीज, दशहरा। यहाँ की संस्कृति ही ऐसी है कि त्यौहार में सिर्फ गृह और आदमी नहीं चमकता है, बचपन चमकता है, मुस्कान चमकती है, हृदय चमकता है, हम और आप चमकते हैं, पृथ्वी समेत पूरा ब्रह्मांड चमकता है।

( आप सभी को नागपंचमी की शुभकामनाएं। भरपेट आम, कोआ, खीर पूड़ी दाबिये )

जय हो।

Previous Post Next Post