दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई

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दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई : प्रतियोगी छात्रों की कहानी

       
'दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई , जो तूने मकान मालिक नामक खड़ूस प्रजाति बनाई।' हर किरायेदार सुबह-सुबह धूप-अगरबत्ती जलाने के साथ भगवान से यही यक्ष प्रश्न पूँछता है।

'आजकल तुम कुछ ज्यादा ही पानी खर्च करने लगे हो, इतने पानी का क्या करते हो जी? पता है मैं तो आधी बाल्टी पानी में नहा-धो के कपडे भी छांट लेता हूँ।'


ये बातें कह-कह के मकान मालिक किराएदारों का चोला चट डालते है। अच्छा किरायेदार मन में भुन्नाते हुए कहता है कि साले आधी बाल्टी में नहा लेते हो, इसीलिये रोज-रोज बीटेक्स खोजते रहते हो, साला खुजेरिया कहीं का।


'कूड़ा अपनी जगह पे डाला करो, भाई। बड़ा नरक मचाये रहते हो। पता है इसी घर में जब हम रहते थे तो पूरा घर सिहिल-सिहिल करता था। जब से तुम लोग का राज हुआ है, तब से तुमने घर का सत्यानाश कर डाला है।'


ये भी दैनंदिन कार्यक्रम के तहत मकान मालिक किरायेदार को सुनाता है। बदले में किरायेदार अपनी प्रचलित भुनभुनाहट में ये अक्सऱ कहता है कि साले यहाँ जब आया था तो मरे चूहे जैसी बदबू आती थी और अगर ज्यादा चुन्ना काटे सफाई का तो अपने ही कर डालो न।


'आजकल तुम्हारी नज़र ऊपर ही ज्यादातर रहती है। क्या देखते हो, भाई। पढ़ने आये हो, सूधे चुप चाप वही कर लो। वरना पिछली बार 2 लौंडो को यही से पीट-पीट के भिजवाए थे।'


मकान मालिक का किराये लेने के अतिरिक्त ये धंधा भी होता है कि कहीं कोई उसकी बिटिया को नज़र भर देख न लें। मानो इनसे ग्रेगर जॉन मेंडल बता गए हो कि लड़के की नजर भर से आपकी बिटिया किसी को मुंह दिखाने लायक न बचेगी।


'किराया टाइम पे दे दिया कर, भाई। बड़ा लेट करता है तने। इतना अच्छा मकान मालिक कोई न होगा। झेल रहा हूँ बस तुम लोग को। और हाँ! वो बिल भी जमा करना रहता है न।'


मकान मालिक महीना शुरू होते ही रिरियाने लगते है। और उ किरायेदार लौंडों को भी पता रहता है कि कोई बिल-वुल न जमा करना है साले को। साल भर का बिल बकाया है। और इसे चुकाते तभी है, जबकि केजरीवाल अपने वोट पक्का करने के लालच में बिजली माफ़ी की कोई योजना निकाल दें।


अच्छा अब अगर लौंडा आत्मसम्मानी टाइप का हुआ और कमरा ख़ाली करने का ठान लिया। तो फिर इनके होब जाब ढीले हो जाते है।


चिरौरियो का दौर शुरू हो जाता है। आंटी एक दिन पकोड़े तल के दे आएगी। सिम्मी भी आते-जाते एक बार नजर फेर आएगी, काहे कि उ भी जानती है कि किरायेदार गया तो उसके भी इतर फुलेल-ऑय लाइनर के लाले पड़ जायेंगे, क्योंकि उनके बाप को सतरही और गुल्ली फ़ांस के सिवाय कुछ नहीं आता है।


अंकल जी भी लौंडे से उनकी पढाई-लिखाई का हाल पूछने लगते है, जिनको बस उतनी ही एबीसीडी आती है, जितने में ताश के पत्ते पहचान ले और गिनती उतनी जितने से गुल्ली फांस का हिसाब लगा लें।

-संकर्षण शुक्ला 




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