औघड़ पुस्तक समीक्षा : Aughad Book Review
प्रस्तुत है युवा साहित्य अकादमी से सम्मानित , बहुचर्चित लेखक "नीलोत्पल मृणाल" के नये उपन्यास "औघड़" की समीक्षा --
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Aughad Review |
कथावस्तु -
शीर्षक "औघड़ "के अर्थ की बात करते हैं तो सामान्यतया यह तंत्र-मंत्र से संबंधित लगता है लेकिन वस्तुतः यहाँ औघड़ का तात्पर्य बेबाक होने से है, उस व्यक्ति से है जो किसी अंधेरे के खिलाफ खड़ा होता है। कुलमिलाकर यहाँ औघड़ का शाब्दिक अर्थ जितना दिखता है, उससे कहीं ज्यादा भावात्मक अर्थ ध्वनित होता है।
इस उपन्यास का मुख्य औघड़ बिरंची है जो बेरोजगार है, फलतः दिन-भर लफंगई करता है, गांजा पीता है। औघड़ का कथानक ग्रामीण जटिलता पर आधारित है। इसका प्लॉट अत्यंत रोचक तथा युवा-पीढ़ी की दृष्टि जानने के लिए उत्तम है। पूरी कथावस्तु अपनी गति में प्रवाहित होती हुई लंबी लेकिन निष्पलक यात्रा पूरी करती है। इसकी सीमा न तो किसी विशेष वर्ग के लिए है और न ही किसी विशेष वर्ग तक है, बल्कि इसका आयाम पूरे समाज पर बराबर और न्यायोचित् दर्शित होता है।
औघड़ का कथानक मलखानपुर और सिकंदरपुर की पृष्ठिभूमि पर चुनाव से पूर्व का माहौल उकेरा गया है, जो धीरे-धीरे सामंतवाद, जाति-व्यवस्था, छुआ-छूत, स्त्री-विमर्श, उत्सव, अकाल, ग्रामीण राजनीति, पत्रकारिता, प्रशासन आदि पर आवश्यक विराम लेता है तथा उसकी विसंगतियों पर सीधे, सपाट और सरल लहजे में प्रहार करता है। आरंभ, मध्य और अंत की बात करें तो औघड़ का आरम्भ भी आरंभ है और अंत भी आरंभ है।
औघड़ पुस्तक समीक्षा : Aughad Book Review
औघड़ पुस्तक समीक्षा : Aughad Book Review
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(Aughad nayi wali hindi book review) |
चरित्र-चित्रण -
पात्रों को कथानक के गतिशीलता में सहायक प्रमुख तत्व माना जाता है। औघड़ के पात्रों में बिरंची नाम का पात्र नायक की भूमिका में है, जबकि ठाकुर, पबित्तर, मधु, लखना आदि गौंड़ लेकिन सशक्त पात्र के रूप में प्रस्तुत होते हैं।
पात्र का बाह्य-व्यक्तित्व कथानक के अनुकूल है जो अभिव्यक्ति में सहजता लाने का कार्य अद्भुत ढंग से करता है। इनका आकार, रूप, वेशभूषा, आचरण, बातचीत उपन्यास की मौलिकता में स्पष्टता लाती है। प्रत्येक पात्र की अपनी सोच तथा अभिव्यक्ति समर्थता है।
कथोपकथन -
औघड़ का संवाद-सृजन आधार है लेखक (नीलोत्पल मृणाल) की अभिव्यक्ति का। ये जितने मौलिक, सरल, स्पष्ट और सहज हैं उतने ही पैने अथवा व्यंग्यात्मक भी हैं। पात्र अपनी बातों से पाठकों को ठीक उसी मनोदशा में पहुँचा देता है जिसमें कि वह स्वयं होता है। जैसे -
के मधु - "समाज की कालिक मुँह में लगाने से अच्छा है कि माँग में झूठ का सिंदूर लगाना। "
"एक स्त्री की देह के साथ बलात्कार एक बार होता है मगर उसकी चेतना में वह बलात्कार बार-बार होता है। ये एक ऐसा मामला है जिसमें दोषी को सजा तो मिल जाती है लेकिन पीड़िता को न्याय नहीं। "
पत्रकारिता से संबंधित- "पत्रकारिता तो अब पक्षपात के दौर से आगे जा गर्भपात और बज्रपात के दौर में प्रवेश कर चुकी है। "
कथोपकथन की श्रेष्ठ-मौलिकता पर दृष्टि डालें तो इसमें आये गीतों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके गीत लेखक के मौलिक गीत होने के साथ-साथ परिस्थिति के सापेक्ष भी हैं। गीतों के माध्यम से अभिव्यक्ति को एक अलग विस्तृत पटल मिलता है जो संवाद मात्र से उस रूप में संभव नहीं है। इसका पुट औघड़ को और विशेष बनाता है। जैसे -
1) अरे चल साधो कोई देश
यहाँ का सूरज डूबा जाये
यहाँ की नदिया प्यासी है
यहाँ घनघोर उदासी है
यहाँ के दिन भी जले-जले
यहाँ की भोर भी बासी है
चल साधो.....
2) रे साधो
एही नदी के तीर
हमने देखा बहता नीर
भरा कटोरा जगत का त्यागा हे साधो
चल गया मस्त फकीर
एही नदी के तीर.....
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Aughad book review (nayi wali hindi book review) |
भाषा-शैली -
इस उपन्यास की भाषा पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार की लोकभाषा है। लोकभाषा में दार्शनिकता का लहजा दिलचस्प है। इसमें भाषा का अपना अलग तेवर दिखता है। ऐसा लगता है की भाषा क्रांति में अपने ढंग से कोई सहयोग दे रही हो।
औघड़ की तरह इसकी भाषा भी बेबाक, सरल, सहज है साथ ही मुहावरेदार, व्यंग्यात्मक भी है जो इस उपन्यास को और अधिक प्रभावशाली बनाता है। टाप जाओ, लोर, बुझाता, सकियेगा, गछपक्कू आम, भकलोल, कपार, कपसन, नरभसाओ नहीं आदि अनेकानेक शब्दों ने इसकी जीवंतता बनाये रखी है।
शैली यथार्थपरक, परिस्थिति-प्रधान है। तीनों शब्द-शक्तियों (अभिधा, व्यंजना, लक्षणा) का प्रयोग यथास्थान किया गया है। जैसे -
1) "राजनीति में जो निश्चित हो जाता है वह चित हो जाता है।"
2)"जिंदगी की जीवनधारा कोई भी किताब की विचारधारा से अलग होता है। "
3) "अछूत रस सबसे निर्मल रस है। "
कुलमिलाकर इसकी लच्छेदार भाषा कहीं आपको हँसा देगी , कहीं रुला देगी तो कहीं-कहीं सोचने पर मजबूर कर देगी।
देशकाल-वातावरण -
हिंदी-साहित्य में ग्रामीण, आँचलिक जैसे शब्द के साथ प्रेमचंद, रेणु जैसे नाम स्वतः जुड़ जाते हैं। ये उपन्यास इसी परंपरा का है। प्रेमचंद, रेणु आदि का गाँव उनकी लेखनी के 50-60 वर्ष बाद कैसा हो गया! , क्या-कुछ बदल गया! , क्या है जिसमें राई मात्र का भी परिवर्तन नहीं हुआ आदि तर्क इसका वातावरण निर्मित करने में सहायक हुआ है।
औघड़ आज के भारत की कथावस्तु है, जिसको एक युवा-लेखक द्वारा देखा गया है। लेखक ने अपनी रचना-धर्मिता के साथ कोई पक्षपात नहीं किया है, जो रचा, जो दर्शाया, जिस देशकाल-वातावरण की निर्मिति की, सर्वथा उचित एवं सफल है। पात्रों का रहन-सहन, व्यवहार, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति आदि बिंदुओं ने वतावरण औघड़ के अनुरूप बनाने में सहायता ही की है।
उद्देश्य -
के वर्तमान-लेखन में जहाँ एक ओर महानगरों की कहानियाँ आम होती जा रही हैं, वहीं औघड़ जैसा उपन्यास एक नये विषय, नये तेवर के साथ आता है और उपस्थिति ऐसे दर्ज कराता है जैसे दशकों से उसका स्थान रेखांकित था। लेखक डार्क हाॅर्स लिखकर जिस सहजता और मौलिकता से गाँव-जवार के युवा को मुखर्जीनगर की स्थिति समझाने में समर्थ होता है , ठीक उसी प्रकार औघड़ लिखकर महानगरों के युवाओं को भी मलखानपुर और सिकंदरपुर पहुँचा देता है और बैठा देता है बिरंची, लखना के बीच।
ये उपन्यास उस पाठक को भी अपनी भोगी हुई कहानी लगती है जो कभी गाँव नहीं गया, सिकंदरपुर -मलखानपुर नहीं गया, क्योंकि प्रतीक-रूप में कोई स्थान विशेष की बात भले हो लेकिन ये स्थितियाँ समूचे भारत में व्याप्त है और यही इसका उद्देश्य है। लेखक की यह पटुता ही औघड़ की सफलता है।
औघड़ हिंदी-साहित्य की उन रचनाओं में शामिल हो गया है जिनकी चर्चा सदियाँ करेंगी। इसके गीत जब-जब गुनगुनाये जायेंगे, औघड़ दर्शित होगा, उद्देश्य सफल होगा।
Nayiwalistory / नई वाली स्टोरी लेखक निलोत्पल मृणाल को अशेष शुभकामनाएँ देती है तथा उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है।
समीक्षा- खनक तिवारी (Admin Panel Nayiwalistory)
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Aughad / औघड़ |
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