औघड़ पुस्तक समीक्षा : Aughad Book Review
समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था। किसी को ढोते हुए तो किसी को जोतते हुए। गाँव में ज़िंदगी एक गाय थी और संघर्ष उसका चारा। इसके अलावा चारा भी क्या था....!"
शीर्षक "औघड़ "के अर्थ की बात करते हैं तो सामान्यतया यह तंत्र-मंत्र से संबंधित लगता है लेकिन वस्तुतः यहाँ औघड़ का तात्पर्य बेबाक होने से है, उस व्यक्ति से है जो किसी अंधेरे के खिलाफ खड़ा होता है। कुलमिलाकर यहाँ औघड़ का शाब्दिक अर्थ जितना दिखता है, उससे कहीं ज्यादा भावात्मक अर्थ ध्वनित होता है।
"समाज की कालिक मुँह में लगाने से अच्छा है कि माँग में झूठ का सिंदूर लगाना। "
एक जगह औघड़ उपन्यास के लेखक लिखता है कि ...समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था। किसी को ढोते हुए तो किसी को जोतते हुए। गाँव में ज़िंदगी एक गाय थी और संघर्ष उसका चारा। इसके अलावा चारा भी क्या था....!"
जब आप औघड़ पढ़ेंगे तो लगेगा कि लेखक पर परसाई जी की गहरी छाप है। जिस तरह परसाई जी ने किसी को नहीं छोड़ा ...उसी तरह लेखक नीलोत्पल मृणाल ने किसी वर्ग को नहीं छोड़ा ...सबको अच्छे से आईना दिखाया .. बस कहीं मुझे घोर निराशा दिखी जैसे सभी वामी गजेड़ी नहीं होते और सभी राष्ट्रवादी पोंगापंथी भी नहीं होते ।
साथ में गीतों के माध्यम से अभिव्यक्ति को एक अलग विस्तृत पटल मिलता है जो संवाद मात्र से उस रूप में संभव नहीं है। इसका पुट औघड़ को और विशेष बनाता है। जैसे -
औघड़ उपन्यास की भाषा पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार की लोकभाषा है। लोकभाषा में दार्शनिकता का लहजा दिलचस्प है। इसमें भाषा का अपना अलग तेवर दिखता है। ऐसा लगता है की भाषा क्रांति में अपने ढंग से कोई सहयोग दे रही हो।
ये सारे चरित्र व्यक्ति नहीं बल्कि एक पूरा वर्ग हैं। और लेखक ने इनके माध्यम से इन वर्गों के चरित्र को एकदम पारदर्शी कर दिया है ।
ये उपन्यास उस पाठक को भी अपनी भोगी हुई कहानी लगती है जो कभी गाँव नहीं गया, सिकंदरपुर -मलखानपुर नहीं गया, क्योंकि प्रतीक-रूप में कोई स्थान विशेष की बात भले हो लेकिन ये स्थितियाँ समूचे भारत में व्याप्त है और यही इसका उद्देश्य है। लेखक की यह पटुता ही औघड़ की सफलता है।
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समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था। किसी को ढोते हुए तो किसी को जोतते हुए। गाँव में ज़िंदगी एक गाय थी और संघर्ष उसका चारा। इसके अलावा चारा भी क्या था....!"
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(Aughad nayi wali hindi book review) |
प्रिय, पाठकों
आज हम चर्चा करेंगे वर्तमान हिंदी साहित्य की एक बेहतरीन और सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली उपन्यास 'औघड़' की। हम देखेंगे कि कोई किताब क्यों बार बार बेस्टसेलर की सूची और पाठकों के मन में विशेष जगह बना लेती है। ये औघड़ किताब की समीक्षा ही है पर आज इसी समीक्षा में औघड़ से कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ, कोट भी देखेंगे।
औघड़ उपन्यास नीलोत्पल मृणाल जी की कृति है इनकी पहली पुस्तक डार्क हॉर्स थी। औघड़ ये शब्द सुनकर ही मन में एक चित्र उभरता है एक ऐसे अल्हड़पन से भरे व्यक्तित्व का जिसमें हर अलग चीज को अपने हिस्से से महसूस करना और गलत होने पर विद्रोह करना स्वभाव का एक हिस्सा है।
आज हम चर्चा करेंगे वर्तमान हिंदी साहित्य की एक बेहतरीन और सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली उपन्यास 'औघड़' की। हम देखेंगे कि कोई किताब क्यों बार बार बेस्टसेलर की सूची और पाठकों के मन में विशेष जगह बना लेती है। ये औघड़ किताब की समीक्षा ही है पर आज इसी समीक्षा में औघड़ से कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ, कोट भी देखेंगे।
औघड़ उपन्यास नीलोत्पल मृणाल जी की कृति है इनकी पहली पुस्तक डार्क हॉर्स थी। औघड़ ये शब्द सुनकर ही मन में एक चित्र उभरता है एक ऐसे अल्हड़पन से भरे व्यक्तित्व का जिसमें हर अलग चीज को अपने हिस्से से महसूस करना और गलत होने पर विद्रोह करना स्वभाव का एक हिस्सा है।
पर आखिरी में नायक विरंची का मर जाना मुझे जाने क्यों ऐसा लगा कि ठीक ऐसी ही उदासी हर मन पर घिरी होगी जब गाँधी जी को मारा गया होगा ।
शीर्षक "औघड़ "के अर्थ की बात करते हैं तो सामान्यतया यह तंत्र-मंत्र से संबंधित लगता है लेकिन वस्तुतः यहाँ औघड़ का तात्पर्य बेबाक होने से है, उस व्यक्ति से है जो किसी अंधेरे के खिलाफ खड़ा होता है। कुलमिलाकर यहाँ औघड़ का शाब्दिक अर्थ जितना दिखता है, उससे कहीं ज्यादा भावात्मक अर्थ ध्वनित होता है।
औघड़ का कथानक मलखानपुर और सिकंदरपुर की पृष्ठिभूमि पर चुनाव से पूर्व का माहौल उकेरा गया है, जो धीरे-धीरे सामंतवाद, जाति-व्यवस्था, छुआ-छूत, स्त्री-विमर्श, उत्सव, अकाल, ग्रामीण राजनीति, पत्रकारिता, प्रशासन आदि पर आवश्यक विराम लेता है तथा उसकी विसंगतियों पर सीधे, सपाट और सरल लहजे में प्रहार करता है। आरंभ, मध्य और अंत की बात करें तो औघड़ का आरम्भ भी आरंभ है और अंत भी आरंभ है।
"समाज की कालिक मुँह में लगाने से अच्छा है कि माँग में झूठ का सिंदूर लगाना। "
"एक स्त्री की देह के साथ बलात्कार एक बार होता है मगर उसकी चेतना में वह बलात्कार बार-बार होता है। ये एक ऐसा मामला है जिसमें दोषी को सजा तो मिल जाती है लेकिन पीड़िता को न्याय नहीं। "
"पत्रकारिता तो अब पक्षपात के दौर से आगे जा गर्भपात और बज्रपात के दौर में प्रवेश कर चुकी है। "
मुझे वो प्रसंग हृदय में कांटे सा चुभा जब मधु कहती है कि विरंची दा ! औरत का घर से निकलना ही मतलब चरित्रहीन हो जाना मान लिया जाता है और उसपर मर्द की छोड़ी हुई औरत .......
और जब मधु बताती है कि वीडियो ने रेप की कोशिश नहीं की थी ... बल्कि रेप किया था ...तो सभ्य और प्रतिष्ठित कहे जाने वाले समाज का क्रूर और घिनौना रूप नंगा हो जाता है ....
औघड़ उपन्यास पढ़ते हुए जाने क्यों मैला आंचल की बार बार याद आयी ...पर जब लेखक लिखता है .. विरंची सोचता है कि कितना सह लेती हैं औरतें ..... कितनी पीड़ा ..कितना दर्द ...कितना जहर चुपचाप पी लेती हैं ....हम खाक समझ पाएगें औरत को ...तब शरदचंद्र याद आते हैं ।
एक जगह औघड़ उपन्यास के लेखक लिखता है कि ...समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था। किसी को ढोते हुए तो किसी को जोतते हुए। गाँव में ज़िंदगी एक गाय थी और संघर्ष उसका चारा। इसके अलावा चारा भी क्या था....!"
जाती प्रथा पर करारा व्यंग करता है कि "यहाँ हर जाति के नीचे एक जाति थी। भारत में सबसे ऊपर की जाति तो खोजी जा सकती थी पर सबसे निचली जाति खोजना अभी तक बाकी था।
यहाँ हर जाति के लिए कोई न कोई जाति अछूत थी।"
साथ में गीतों के माध्यम से अभिव्यक्ति को एक अलग विस्तृत पटल मिलता है जो संवाद मात्र से उस रूप में संभव नहीं है। इसका पुट औघड़ को और विशेष बनाता है। जैसे -
1) अरे चल साधो कोई देश
यहाँ का सूरज डूबा जाये
यहाँ की नदिया प्यासी है
यहाँ घनघोर उदासी है
यहाँ के दिन भी जले-जले
यहाँ की भोर भी बासी है
चल साधो.....
2) रे साधो
एही नदी के तीर
हमने देखा बहता नीर
भरा कटोरा जगत का त्यागा हे साधो
चल गया मस्त फकीर
एही नदी के तीर.....
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Aughad book review (nayi wali hindi book review) |
औघड़ उपन्यास की भाषा पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार की लोकभाषा है। लोकभाषा में दार्शनिकता का लहजा दिलचस्प है। इसमें भाषा का अपना अलग तेवर दिखता है। ऐसा लगता है की भाषा क्रांति में अपने ढंग से कोई सहयोग दे रही हो।
औघड़ की तरह इसकी भाषा भी बेबाक, सरल, सहज है साथ ही मुहावरेदार, व्यंग्यात्मक भी है जो इस उपन्यास को और अधिक प्रभावशाली बनाता है। टाप जाओ, लोर, बुझाता, सकियेगा, गछपक्कू आम, भकलोल, कपार, कपसन, नरभसाओ नहीं आदि अनेकानेक शब्दों ने इसकी जीवंतता बनाये रखी है।
1) "राजनीति में जो निश्चित हो जाता है वह चित हो जाता है।"
2)"जिंदगी की जीवनधारा कोई भी किताब की विचारधारा से अलग होता है। "
3) "अछूत रस सबसे निर्मल रस है। "
कुलमिलाकर इसकी लच्छेदार भाषा कहीं आपको हँसा देगी , कहीं रुला देगी तो कहीं-कहीं सोचने पर मजबूर कर देगी।
आज की समसामयिक पत्रकारिता पर लेखन ने अच्छे से तमंचा मारा है वो लिखता है कि "पत्रकारिता तो अब पक्षपात के दौर से आगे जा गर्भपात और बज्रपात के दौर में प्रवेश कर चुकी थी।कौन-सा सच कब गिरा दिया जाए और कौन-सा झूठ किसके सर गिरा दिया जाए, कोई भरोसा नहीं था इस दौर की पत्रकारिता का।"
लेखक मृणाल ने शुरुआत में लिखा है कि मैंने किसी को नहीं छोड़ा है ...तो छोड़ा भी नहीं किसी को ... हर पात्र अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। जिसमें सामंतवाद को बचाने के लिये हर कुकर्म करते पुरुषोत्तम बाबू हैं उनके बेटे फूँकन बाबू ....चाहे ब्राम्हणवाद के जर्जर स्तम्भ बदरी मिश्र। चाहे अपने जीवन भर काम से काम रख समाज मे सभ्य बने रहने के बावजूद अपने बच्चे को गलत रास्ते पर जाते देखते लाचार पिता वैरागी पंडित हों....चाहे कामता गुरु जी। चाहे दलित हक और सामंतवाद विरोध की बात करते-करते खुद सामंती गठजोड़ से सामन्त बनने का प्रयास करता पवित्तर दास हो....चाहे मार्क्स और लेनिन को पढ़कर हर बात पर सिर्फ प्रश्न उठाता वामपंथी युवक शेखर हो। चाहे पुलिसिया भ्रष्टाचार का साक्षात स्वरूप दरोगा पारस पासवान हो....चाहे प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अत्याचार का कुत्सित चेहरा बीडीओ हरि प्रकाश हो। चाहे सामंती-प्रशासनिक गठजोड़ के तलवे चाट पैसे बनानेवाला जगदीश यादव हो, बैजनाथ हो...चाहे काशी साव। चाहे इन भ्रष्टाचार रूपी चक्कियों के बीच पिसती मधु हो...और इन बुराइयों से लड़ते- लड़ते मारे जाने वाला कथा का नायक बिरंची।
ये सारे चरित्र व्यक्ति नहीं बल्कि एक पूरा वर्ग हैं। और लेखक ने इनके माध्यम से इन वर्गों के चरित्र को एकदम पारदर्शी कर दिया है ।
मुझे पढ़ते हुए कई बार हँसी आयी जब चिलम प्रशंसा में शेखर मार्क्स लेनिन जैसे महापुरुषों का नाम गिना रहा था तो उसी में गाँव का एक लड़का फुकन सिंह का नाम भी जोड़ देता है ...विरंची के व्यंग हमेशा हंसाते रहे ...जब विरंची कहता है मार्क्स कहते हैं कि धर्म अफीम है इसे छोड़ना होगा तो ...समझ मे नही आता कि ये लोग अफीम ही क्यों नहीं छोड़ देते ।
सबसे खास बात ये है कि इसे पढते हुए कहीं ये नहीं लगता कि कोई अंजानी कहानी पढ़ रहे हैं लगता है ये देखा सुना हुआ है फिर भी रोचकता तीव्र है कहीं बोझिलता नहीं है ।
कभी किताबें पढ़ते हुए एक कसक होती है कि बिहार के लोग अपने गाँव जवार से अब भी हृदय से जुड़े हैं क्योंकि जितना बिहार के गाँवों को लिखा गया उतना शायद ही किसी और प्रदेश के गाँव को लिखा गया हो ....जहाँ तक मुझे ऐसा लगा ....हो सकता है कि ये सच नहीं भी हो ... ..पर मुझे लगा जमीन से जुड़े हैं वहाँ बुद्धिजीवी ।
वर्तमान-लेखन में जहाँ एक ओर महानगरों की कहानियाँ आम होती जा रही हैं, वहीं औघड़ जैसा उपन्यास एक नये विषय, नये तेवर के साथ आता है और उपस्थिति ऐसे दर्ज कराता है जैसे दशकों से उसका स्थान रेखांकित था। लेखक डार्क हाॅर्स लिखकर जिस सहजता और मौलिकता से गाँव-जवार के युवा को मुखर्जीनगर की स्थिति समझाने में समर्थ होता है , ठीक उसी प्रकार औघड़ लिखकर महानगरों के युवाओं को भी मलखानपुर और सिकंदरपुर पहुँचा देता है और बैठा देता है बिरंची, लखना के बीच।
ये उपन्यास उस पाठक को भी अपनी भोगी हुई कहानी लगती है जो कभी गाँव नहीं गया, सिकंदरपुर -मलखानपुर नहीं गया, क्योंकि प्रतीक-रूप में कोई स्थान विशेष की बात भले हो लेकिन ये स्थितियाँ समूचे भारत में व्याप्त है और यही इसका उद्देश्य है। लेखक की यह पटुता ही औघड़ की सफलता है।
औघड़ हिंदी-साहित्य की उन रचनाओं में शामिल हो गया है जिनकी चर्चा सदियाँ करेंगी। इसके गीत जब-जब गुनगुनाये जायेंगे, औघड़ दर्शित होगा, उद्देश्य सफल होगा।
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Aughad / औघड़ |
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