बतजगा : आधी रात के किस्से । Batjaga: Aadhi raat ke kisse
आगाज ( पुस्तक बतजगा का अंश )
शाम होने से पहले ही मैं छत पर पहुँच गया था। उसने कहा था कि सूरज डूबते ही वह मुझसे छत पर मिलेगी। उसकी छत और मेरी छत मिलती थी। इतनी मिलती थी कोई बच्चा भी एक कदम में पार हो जाये।
यूँ अगल बगल में होते हुए भी मेरी हिम्मत नहीं हो पाती थी कि अपनी छत से उसकी छत पर जा पाऊँ। शायद उसमें काफी हिम्मत थी। अक्सर अपने घर में सबके सोने के बाद वह दबे पाँव छत पार कर मेरे कमरे में आ जाती थी।
मैं अपने घर में अकेला रहता था। शायद उसकी हिम्मत की वजह यही थी। अक्सर ही वह ग्यारह बजे के बाद आती और भिनसार तक कुछ न कुछ बातें करती रहती। उसकी बातें कभी खत्म नहीं होती थी।
उसके कमरे की खिड़की और मेरे कमरे की खिड़की यूँ आमने सामने थी कि एक दूसरे का हाथ थाम लेते थे अपने अपने कमरों में बैठे हम लोग। वह कभी दिन में मेरे पास नहीं आती थी कि उसे हम दोनों के बीच कोई तीसरा पसंद नहीं था।
उस रोज ऑफिस से लौटने के बाद जब मैं कपड़े बदल रहा था तो अचानक से आवाज आई, "अभी!"
"हाँ बोलो।", मैंने चौंकते हुए कहा।
"सूरज डूबते ही छत पर मिलो।" और फिर वह खिड़की के सामने से हट गई।
कुछ देर बाद मैं छत पर पहुँचा और उसका इंतजार करने लगा। उसके कमरे में रेडियो पर बज रहा था, "हमरी अटरिया पे, आजा रे सजनवा..."
(आप आभिषेक सूर्यवंशी की नयी पुस्तक बतजगा का अंश पढ़ रहे हैं : Batjaga aadhi raat ke kisse, book story in hindi)
उसके रेडियो पर यह बज रहा था और मैं करीब करीब डूब चुके सूरज को देखते हुए उसका इन्तजार कर रहा था। सूरज का नहीं। उस पड़ोसन का।
"अभी! नीचे आओ। कमरे में।", अचानक से उसकी आवाज आई। सूरज अभी डूबा नहीं था। एक टुकड़ा अभी बाकी था। मेरी रूह काँप गई उसके कमरे में जाने की सोचकर ही। पीछे पलट कर उस पाव भर सूरज को देखा और हिम्मत करके उससे पूछा, "तुम्हारे कमरे में?"
"अपने कमरे में आओ डफर।"
"ओह! ठीक है।"
मैं चुपचाप सीढियाँ उतर आया। आकर उसके कमरे में झाँका तो खिड़की पर पर्दे खिंचे हुए थे। मैंने आवाज लगाई, "आ गया।"
"जल्दी से तैयार हो जाओ। बाहर चलना है।"
"ठीक है।", बोलकर मैं कपडे पहनने लगा। जब मैं जूते पहन रहा था तो उसने पर्दे खींचे। खिड़की से जितना दिख रहा था देखकर समझ आया कि कुछ खास बात है। उसने लाल रंग वाली टो लेंथ सूट पहना हुआ था जो अक्सर पार्टी में जाते हुए पहनती थी। उसके बाल उसके दाएँ कंधे पर होते हुए आगे आये हुए थे। गरदन को बाईं तरफ बिलकुल हल्का सा झुकाकर झुकाकर वह झुमका पहन रही थी। मुझे समझ नहीं आया कि अचानक से कौन सी पार्टी है।
"तैयार हो गए?", उसका सवाल आ गया।
"हाँ। बस जूते पहन रहा हूँ।"
"ठीक है। मैं कैब बुक कर रही हूँ। वॉलेट लेकर बाहर आ जाओ। चलना है।"
"ओके।", मैंने बस इतना ही कहा। पता था कि उससे पूछना बेकार है। वह जो चाहेगी वही करेगी।
(आप नई वाली स्टोरी पर हिंदी की नयी पुस्तक बतजगा का अंश पढ़ रहे हैं : Batjaga aadhi raat ke kisse book story in hindi)
जब मैं बाहर निकला तो वह नहीं आई थी। बाहर एक कैब खड़ी थी, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कैब उसी ने बुलाई है। मैं अपने दरवाजे के सामने खड़ा होकर उसका इन्तजार करने लगा।
जब तक वह बाहर आई, कैब चली गई थी। मैं उसे देख रहा था और मेरी नजर उससे हट नहीं पा रही थी।
"क्या देख रहे हो?", उसने सवाल दागा।
"कु…कुछ नहीं। क्यों?"
"यूँ ही। चलो कैब आ गई।", उसने मेरे पीछे की तरफ इशारा किया। उसका मूड कुछ उखड़ा हुआ सा लग रहा था।
हमदोनों कैब में बैठ गए और कैब के ड्राइवर ने जीपीएस के इशारे पर गाड़ी चलानी शुरू कर दी। गाड़ी में वह चुप ही रही। मैं तो यूँ भी बोलता नहीं था। जब गाड़ी रुकी तो शाम के सात बज चुके थे। बाहर निकल कर देखा तो गाड़ी द कॉलोनी गेस्ट्रॉपब के सामने रुकी थी। वह भी गाड़ी से बाहर निकली और मेरे वॉलेट पर कब्ज़ा जमा कर गाड़ी वाले को पैसे चुकाए। उसके बाद मेरा वॉलेट उसकी पर्स में पनाह पा गया।
द कॉलोनी पब उस बिल्डिंग के सबसे ऊपर के तल्ले और छत पर है। हमदोनों अब छत वाले हिस्से में बैठे हुए थे जहाँ से पूरा बैंगलोर दिखता है। मैंने पूरब की ओर देखा तो अभी चांद आसमान में नहीं आया था। सामने देखा तो स्नेहा थोड़ी उदास सी मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी आँखों ने उसकी आँखों से पूछा कि क्या बात है और उसकी आँखों ने मेरे सवाल को टाल दिया।
"योर आर्डर सर।"
सर घुमाकर देखा तो उधर वेटर खड़ा था। मैंने स्नेहा की तरफ देखा और पूछा, "तुम्हारे लिए क्या मँगवाऊँ?"
"मैं तो बियर पियूंगी।"
"कौन सी?"
"हेनीकेन।"
मैंने वेटर से मुखातिब होकर बोला, "एक हेनीकेन दे दो और दो पेग हंड्रेड पाइपर्स व्हिस्की ऑन द रॉक्स।"
"एनी स्टार्टर सर?"
"एक चिकन टिक्का और एक अफगान चिकन कर दो।", मुझे स्नेहा की पसंद पहले से पता थी, अफगान चिकन।
"एनीथिंग एल्स सर?"
"नहीं भाई। जब जरूरत होगी आवाज दे दूंगा।"
"श्योर सर।"
वेटर ने अपना सामान समेटा और चला गया।
"जब वेटर इंग्लिश बोलता है तो तुम हिंदी में क्यों बोलते हो?", वेटर के जाते ही स्नेहा टूट पड़ी।
"क्योंकि मुझे अच्छा लगता है और उसे समझ आती है।"
"तुम गँवार ही रह जाओगे।", यह सुनकर मैं बस मुस्कुरा कर रह गया। उसने अपनी बात जारी रखी, "और तुम शराब क्यों पीते हो?"
"तुम अकेले पीती अच्छी नहीं लगती न, इसलिए।"
"मैंने कब शराब पी?"
"अभी तो आर्डर किया?", मैंने सवालिया नजरों से उसे देखा।
"वह तो बियर है।"
"तो क्या बियर शराब नहीं होती?"
"नहीं, बिलकुल नहीं होती।"
मेरा आश्चर्य बढ़ता जा रहा था, "किसने कहा?"
"मैंने पढ़ी थी।"
"कहाँ?"
"तुम्हारी फ्रेंडलिस्ट में जो लड़का है उसकी किताब में?"
"रावायण क्या?"
"हाँ।"
"इसने अलग ही चरस बो रखी है।"
यह सुनते ही वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। मैं फिर से सुध बुध खोकर उसे देखने लगा।
"क्या देख रहे हो?", यह सवाल मुझे हमेशा होश में ले आता था और इसका जवाब भी हमेशा एक ही होता था, "कु कुछ नहीं। क्यों?"
फिर वह पलट कर हमेशा बोलती थी, "यूँ ही।"
मैंने सर घुमाया तो चांद दिख रहा था। उसने भी चांद को देखा और मुझसे कहा, "मत देखो चांद को।"
"क्यों?"
"क्योंकि आज करवा चौथ है।"
यह जवाब मेरे कानों में पिघला लोहा डाल गया। मैंने कुछ जवाब न देकर वेटर का इन्तजार करना ठीक समझा। उसने पानी के गिलास को उठा कर अपने होंठों से लगा लिया।
रेस्टोरेंट के म्यूजिक सिस्टम में बज रहा था, "आयम इन लव विद द शेप ऑफ़ यू..."
(आप नई वाली स्टोरी पर हिंदी की नयी पुस्तक बतजगा का अंश पढ़ रहे हैं : Batjaga new hindi novel, book story in hindi)
अभी आर्डर के आने में टाइम था। लेकिन माहौल को बदलने की जरूरत थी। मैंने उससे पूछा, "बियर मंगा लें?"
"बिना चिकन के?", गिलास को होंठों के पास रखे हुए उसने जवाब दिया।
"देखते हैं कि कुछ और स्टार्टर हुआ तो मंगवा लेंगे।"
"ओके।", हरी झंडी मिल गई थी।
मैंने वेटर को इशारे से बुलाया।
"यस सर?", वेटर ने नपी-तुली मुस्कान छोड़ते हुए पूछा।
"कुछ ऐसा है जो तुरंत मिल सके?"
"ओनली सेलड इज देयर फॉर इंस्टेंट सर।"
"ठीक है भाई। एक सेलड ले आओ और दो हेनीकेन अलग से।"
पता ही नहीं चला कि हम कितनी देर से बार में बैठे हुए थे। मेरे फोन से आवाज आई तो देखा कि मिश्रा जी बेचैन हो रहे थे। फोन उठाया तो आवाज आई, "कहाँ हैं मरदे? आधा घंटा से आपके घर के आगे खड़ा हूँ।"
"मि... मिस... मिसरा... जी?
"हाँsssजीssss.... कितना बोतल डाउन कर के बैठे हुए हैं?"
"बssस... एक।"
"बोतल कि पैग?"
"पता नहीं। बाद में बात करें?"
"हा हा। ठीक है। यह बताइये कि रुके कि जाएँ?"
"कल मि..ली..ये।"
"ठीक है।", कहकर मिश्रा जी ने फोन रख दिया।
मैंने मोबाइल में देखा तो नौ बज चुके थे। पिछले दो घंटे में मैं एक बियर और आठ पेग व्हिस्की के लगा चुका था। वह भी तीसरी बियर पी रही थी। पिछले दो घंटों में हमदोनों में सिर्फ यह बात हुई थी कि किसे क्या मंगवाना है। चांद ने माहौल खराब कर दिया था।
घड़ी देखने के बाद वक्त अपनी रफ्तार बदल देता है। पिछले दो घंटे बेहद तेजी से बीते थे। अगले पंद्रह मिनट धीरे हो गए। मुझे डर सताने लगा कि कहीं उसके घरवाले वापस न आ गए हों।
"स्नेहा। घर चलो।", मैंने होश संभालते हुए कहा।
"हूँsss?", उसने मदभरी लाल आँखों से मुझे देखते हुए पूछा।
"घर चलो स्नेहा।", मैंने जोर देकर कहा इस बार।
"कौन से घर?"
मैं उसके सवाल का मतलब समझ गया लेकिन शांत रहा। अभी वह होश में नहीं थी या शायद शराब ने उसे बेहतर होश दे दिया था। मैंने सख्ती दिखाते हुए कहा, "घर चलो। अभी बहस मत करो।"
"तो कब बहस करूँ?" उसने आगे झुककर मेरी आँखों में झाँकते हुए मचल कर कहा।
"घर चलकर करना।", मैंने कड़ेपन से जवाब दिया।
"झूठ मूठ का गुस्सा मत दिखाओ।", कहकर उसने बियर को वापस मुँह लगा लिया।"
मैंने उसके हाथ से बोतल लेते हुए कहा, "अब बस। कोई सवाल जवाब नहीं।"
उसकी आँखों से झाँकती हुई बच्ची को इग्नोर करते हुए मैंने वेटर को बिल देने के लिए इशारा किया।
लौटते हुए जब हम कैब में बैठे तो उसने मेरी बाईं बाँह को अपने हाथों से जोर से जकड़ा हुआ था, और अपना सिर मेरे कंधे पर रखा हुआ था। घर के सामने पहुँच कर पहले वह बाहर निकली और फिर मैं।
"चलो। तुम्हें घर छोड़ दूँ।", मैंने उसे संभालते हुए कहा।
"कौन से घर?", उसने फिर से वही सवाल किया।
"यह जो सामने दिख रहा है।"
"अच्छा! पापा का घर?", ग्यारह बज रहे थे। नशा हल्का हुआ था, लेकिन खुमारी बाकी थी।
"हाँ। वही।"
"नहीं जाना। तुम अपने घर ले चलो न।", वह मुझसे अचानक से लिपट गई। उसकी बाँहें मेरे गिर्द कसी हुईं थीं और उसका चेहरा मेरे सीने में गड़ा हुआ था। उसका सर मेरे गले से लगा हुआ था और बाल बिखरे हुए थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ।
उसने धीरे से अपना चेहरा मुझसे अलग किया और सर को पीछे की ओर झुकाते हुए मेरे चेहरे की ओर देखा और बोला, "प्लीज अभी। अपने घर ले चलो न।" और फिर वह अपना चेहरा मेरे सीने में छुपाकर सुबकने लगी। मैंने अपना बायाँ हाथ उसके पीठ पर लपेट दिया और दायें हाथ से उसके खुले बाल सहलाने लगा।
"चलो न।", फिर उसने बोला।
मैंने उसका सर सहलाते हुए बोला, "इतनी जोर से पकड़ रखी हो तो कैसे जाएंगे? थोड़ी तो ढील दो।"
सुनकर उसने मुझे छोड़ दिया और अपने आँसू पोंछते हुए मेरे घर के दरवाजे की तरफ चल दी। मैं भी उसके पीछे पीछे गया और ताले में चाभी घुसाकर घुमाते हुए उससे पूछा, "तुम्हारे घरवाले खोजेंगे तब?"
"कोई नहीं है घर में। तीन दिन के बाद आएंगे।", उसने अपनी जूतियाँ उतारी और मेरे हाथ में पकड़ा कर अंदर चली गई।
"कहाँ जा रहे हो?", उसने मुझे कमरे से बाहर निकलते देखकर पूछा।
"बाहर सोफे पर सोने।", मैंने बत्ती बुझाते हुए जवाब दिया।
"पहले लाइट ऑन करो।", उसने हुक्म जारी किया।
मैंने चुपचाप हुक्म मान लेना ही ठीक समझा। बत्ती जला कर बाहर निकल गया।
"अंदर आओ नहीं तो मैं चिल्ला दूंगी।", कुछ देर बाद उसकी आवाज आई।
मजबूरन अंदर जाना पड़ा। देखा तो उसका सूट एक ओर आलमारी के दरवाजे से लटक रहा था। वह कपडे की एक परत से आजाद हो चुकी थी। लेकिन अब भी उसके शरीर पर इतने कपड़े थे कि उसके सामने रहने में कोई झिझक नहीं हो रही थी। पता नहीं कैसे लड़कियाँ इतने कपड़े पहन लेती हैं। परत दर परत। शायद मन पर भी ऐसे ही परत रखती हैं जो धीरे धीरे खुलते हैं।
"अब क्या हुआ?", मैंने पूछा उससे।
"मेरे पास रहो न।"
"तुम होश में नहीं हो। सो जाओ।", मैंने उसके पास जाकर उसे कंबल से कमर तक ढँकते हुए कहा। वह पड़ी पड़ी अंगड़ाइयाँ ले रही थी। उसे कंबल ओढ़ा कर मैं कमरे के अंदर ही सोफे पर लेट गया।
"उठो। चाय पी लो।", यह आवाज कानों में पड़ते ही मेरी नींद खुल गई। देखा तो स्नेहा सामने बिस्तर पर बैठी हुई थी। उसके बगल में एक ट्रे में चाय के दो कप रखे हुए थे। वह शायद नहा धो कर आ गई थी। सफ़ेद पायजामा और हरे सूट में बाल खोले बैठी थी। अभी शायद कंघी नहीं किया था उसने। बाल सूखे थे, लेकिन बेतरतीबी से कन्धों पर काबिज थे। लग रहा था कि तौलिये से सुखाकर आई हो।
"टाइम क्या हो रहा है?", मैंने अलसाये हुए ही पूछा।
"आठ बजे हैं।", बालों को ऊँगली से सुलझाते हुए उसने कहा।
"ओह। ऑफिस भी जाना है।"
"पहले ब्रश करके आओ और चाय पी लो।"
मैं चाय पीता हुआ उसे ही देखता रहा। एक दो बार उसने इशारे से पूछा भी कि क्या बात है तो मैंने कुछ नहीं बोला। मेरे लगातार देखने से उसके चेहरे पर बार बार शर्म दौड़ जा रही थी।
चाय पीने के बाद मैं सोफे पर पीठ टिकाकर बैठ गया। वह गई और कप को रसोई में रख कर वापस आ गई। वापस आकर वह सोफे पर मेरे बाईं ओर टिक कर बैठ गई और मेरे बाएँ हाथ को उठाकर उसने अपने बाएँ कंधे पर रख लिया।
"गन्दी हो जाओगी। तुम नहाकर आई हो और मैं वैसे ही पड़ा हुआ हूँ।", मैंने थोड़ा हटने की कोशिश करते हए कहा।
"तो क्या हुआ?", उसने मेरे और करीब होते हुए कहा।
"कुछ नहीं।", कहकर मैं कल शाम की बात सोचने लगा जब उसने चांद देखने से मना किया था। अभी पिछले महीने की ही तो बात है जब उसने मुझे बताया था कि बीते साल करवा चौथ के दिन ही अदालत ने फैसला दिया था उसके तलाक का। शादी को अभी कुल मिलाकर छह महीने भी नहीं हुए थे और तलाक। उम्र भी क्या! बस चौबीस साल।
"सुनो।", उसने धीमे स्वर में कहा।
"क्या?", मैंने उसके बालों में उँगलियाँ फेरते हुए पूछा।
"ऑफिस जाना जरूरी है क्या?"
"जरूरी नहीं, मजबूरी।"
यह सुनते ही वह खिलखिलाकर हँस पड़ी और फिर बोला, "आज मत जाओ।"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं कह रही हूँ।"
"फिर भी। कोई तो वजह होगी।"
"ठीक है। तुम चले ही जाओ।", उसने मुझे धक्का देते हुए कहा। गुस्सा साफ झलक रहा था।
"ठीक है। नहीं जाता। गुस्सा थूक दो।", मैंने मनुहार की।
"ठीक है।", बोलते हुए वह वापस मेरे करीब आ गई। अगले ही पल दूर हो गई, "नहाओ जाकर। कितनी बदबू आ रही है तुमसे।"
मैंने कोई सवाल जवाब नहीं किया और उठकर गीजर चालू करने के बाद मोबाइल निकाल कर ऑफिस से छुट्टी के लिए मेल टाइप करने लगा।
करीब आधे घंटे बाद जब मैं नहाकर बाहर निकला तो कमरे में कोई नहीं था। हॉल से खटर पटर की आवाज आ रही थी। मैं कपड़े पहन कर निकला तो देखा कि वह नाश्ता तैयार कर चुकी थी। गरमागरम रोटियाँ और अंडे का ऑमलेट। वो लड़की नहीं, जादू है। मेरे तैयार होने से पहले नाश्ता तैयार हो चुका था। आज दिल में फिर से उसके लिए आसक्ति बढ़ती जा रही थी। लेकिन मुझे पता था कि आज भी बोल नहीं पाऊंगा। पिछले दो महीने ऐसे ही तो बीते थे।
नाश्ते के बाद मैं कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गया। जब कुछ समझ नहीं आता है तो टीवी चला लेता हूँ। उस रोज भी यही किया। वह उधर किचन में थी और मैं इधर कमरे में। टीवी देखते देखते मेरी आँख लग गई।
अचानक से सीने ने भारीपन और शरीर ने जकड़न महसूस की तो नींद खुली। देखा तो स्नेहा ने अपना सर मेरे कंधे पर रखा हुआ था और उसके हाथ मेरे गिर्द लिपटे हुए थे। उसके बालों से उठती हुई शैम्पू की खुशबू मेरे नथुनों में घुस रही थी। मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। आज से पहले वो मेरे इतने करीब कभी नहीं आई थी। लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उसे अलग कर सकूँ। सच कहूँ तो उसका ऐसे करीब रहना मुझे अच्छा ही लग रहा था।
मेरे कुनमुनाने पर उसने पूछा, "क्या हुआ?"
"कुछ भी तो नहीं।"
"तो सो जाओ।"
"हूँ।", कहकर मैं वापस नींद में जाने लगा कि तभी फिर से उसकी आवाज आई, "टेबल लैंप का स्विच नहीं मिला। कैसे बंद होगा?"
"अलेक्सा, टर्न ऑफ द लाइट्स।"
"ओके।", पास रखे डब्बे से आवाज आई और टेबल लैंप बंद हो गया। बाकी सारे बल्ब पहले ही बंद थे। टीवी भी वह बंद कर चुकी थी। खिड़कियाँ भी बंद थीं। सो अब घुप्प अंधेरा हो गया था।
मैं घुप्प अंधेरे का फायदा उठाते हुए जरा सा उसकी तरफ घूमा और अपनी बाँहों को उसके गिर्द लिपट जाने दिया। उसने भी खुद को थोड़ा हिलाकर अपने चेहरे को मेरे सीने से चिपका लिया और अपनी जकड़न मजबूत कर दी।
(आप नई वाली स्टोरी पर हिंदी की नयी पुस्तक बतजगा का अंश पढ़ रहे हैं : Batjaga new hindi novel, book story in hindi)
उस शाम मैं फिर छत पर बैठा हुआ था। लेकिन आज मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ वह भी झूले पर बैठी हुई थी। सामने सूरज डूब रहा था।
मेरी बाईं बाँह को अपने दाएँ हाथ से जकड़ कर मेरे कंधे पर सर रखते हुए उसने डूबते हुए सूरज की आँखों में देखते हुए मुझसे बोला, "तुमने पहले क्यों नहीं बोला? मैं तुम्हारे बोलने का इंतजार कर रही थी। आज भी अगर मैंने न बोला होता तो शायद कभी पता ही नहीं चलता कि तुम भी मुझसे प्यार करते हो। यूँ तो बड़े शेर बने घूमते हो। मुझसे बोलने में क्या हो जाता था?"
मैंने उसके बाएँ हाथ को अपने हाथ में लिया और उसे दोनों हथेलियों के बीच छुपाते हुए बोला, "प्रेम में बड़े से बड़ा शेर भी भीगी बिल्ली बनकर घूमता है।"
उसके खिलखिलाकर हँसने से तारों की नींद खुलने लगी, और पीछे की क्षितिज रेख पर घर से निकलने की तैयारी में लगा चांद हमारी बातें सुनकर मुस्कुराने लगा।
*** अभिषेक सूर्यवंशी (पुस्तक बतजगा का अंश)
Recommended Book:-
बतजगा : Batjaga
नई वाली स्टोरी अभिषेक सूर्यवंशी को उनके लेखन के लिए बधाई देती है, साथ ही उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती है।
Suggested Keyword:-
बतजगा/ Batjaga a book by Abhishek Suryvanshi, best hindi love story novel, horror story, best hindi love horror life book story, new writer book, nayi wali hindi story book, best hindi book
बतजगा/ Batjaga a book by Abhishek Suryvanshi, best hindi love story novel, horror story, best hindi love horror life book story, new writer book, nayi wali hindi story book, best hindi book