प्रीत की पंखुड़ियाँ - प्रतिमा मौर्य : Preet ki pankhudiyan - Pratima Maurya ( A love poetry Book )
प्रिय प्रतिमा,
ऐसे डिजिटल समय में कविता की मूलभूत इकाइयों से मिलना जीवन की सबसे कोमल और मधुर पंखुड़ियों से मिलने जैसा है। उसमें भी जब पंखुड़ियाँ प्रीत की हो तो कविताएँ पुष्प बनकर खिलना शुरू हो जाती हैं।
सोचा नहीं था कि कभी आपको चिट्ठी भी लिखना होगा। पर अब जब लिख रहा हूँ तो समझियेगा कि प्रेम की पंखुड़ियाँ किसी रंगबिरंगी तितलियों के गोद में स्वप्न देख रही है।
दरअसल ये चिट्ठी आपकी ही एक कविता को पढ़कर लिखने का ख्याल आया। कविता कुछ यूँ है कि-
सारी चिट्ठियाँ क्यों लिखीकिसे लिखी नहीं मालूमबस लिखते-लिखतेमोह सा हो गया उन बेनाम चिट्ठियों से।
आपको पढ़कर जाना कि जब मन उदास हो तो प्रेम भी व्यंग की भाषा बन जाती है। ऐसा लगता है कि ये पुस्तक कविता संग्रह नहीं, बल्कि मन का एक डायरी हो जिसमें प्रेम भी है और प्रेम के बीच की उदासियाँ भी। दो जून की रोटी भी है और उस रोटी की भूख भी। विश्राम भी है और जीवन की सुंदरता भी।
ऐसे समय में जब धर्म हमारे लिए एक राजनीतिक मुद्दा बनकर गामा किरण से भी अधिक तेजी से व्यक्ति के मन को भेद दे रही है। तब आपकी एक कविता याद आती है।
प्रजातंत्र की पंक्ति मेंशीर्ष पर विराजमान लोगों मेंजब रौब और रसूख दिखाने की होड़ लग जायेतब तब्दील कर देना चाहिएउस पँक्ति को वृत में।
मैं किताबों को बेहद सुस्त ढंग से पढ़ता हूँ। सोचता हूँ इसे ठीक उसी ढंग से पढूँ जिस ढंग से लिखने वाले ने इसे लिखा है। एक जगह आपके अध्यापिका होने का बोध भी नज़र आया। जब आपने लिखा-
परमाणु से भी अधिकघातक अविष्कार करूँगाजो मिटा दे एक साथ आधी दुनिया को।बड़े होकर क्या बनोगे?प्रश्न के उत्तर में एक अबोध सेऐसा विध्वंसक प्रतिउत्तर सुनसहमी हुई धरती और सहम गयी।
मैं एक पाठक होकर सहम सा गया हूँ। शायद जवालुमुखी इसी तरह फटते होंगे। आविष्कार ने आज आंखों के आगे सेलफोन का बेल आइकॉन तो लटका दिया पर आंखों की मासूमियत छीन ले गया।
मेरे जैसा व्यक्ति हर जगह गाँव ही ढूँढता ही। आपकी एक कविता कुछ ऐसी है। जिसमें शहरों के सीएनजी गाड़ियां और एलईडी लाइट से सजे रूम गाँव के गलियारों के सामने फीके पड़ जाते हैं।
शहरों की उबासियों से दूरजो गुजरना कभीकिसी गाँव की गली सेदेखना जर्जर मकानों केअधखुले दरवाजों मेंमिल जायेगा तुम्हें ख़ूबसूरत सेसपने बुनता हुआमासूम सा प्रेम!
एक हिंदी के अध्यापिका को खत लिखना, फाइटर प्लेन चलाने से भी बड़ी चुनौती होती है। उसमें भी जब लिखने वाले का हिंदी सबसे कमज़ोर विषय रहा हो। कुलमिलाकर कुछ कविताएँ सामान्य सी लगी कुछ बेहद अच्छी भी। गीत चतुर्वेदी जी सही कहते हैं दुनिया मे जितनी क्रूरता है उस हिसाब से कविता अब भी कम हैं। इसीलिए प्रेम लिखना और पढ़ना तब तक जारी रहे जब तक कि क्रूरता के क्षोभमंडल को प्रेम के कोमल परत में न बदल दिया जाए। किताब के लिए शुभकामनाएं। आशा करता हूँ अगली पुस्तक में और भी बेहतरीन और उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी। प्रीत को पंखुड़ियाँ को ढेर सारा प्रेम।
अभिषेक आर्यन
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