ठंड, घना कोहरा। इतना कोहरा कि गाँव वाले मंदिर के ऊपर लगा लाइट भी नहीं दिख रहा। एक दो दूध वाली साइकिल चाय की दुकानों तक धीमी गति से पहुंच रही है।
मुझे याद है इसी घने कुहरे में एक बार जगोधर मिसिर मंदिर पार कर रहे थे और देखे-अनदेखे में साइकिल कुत्ते के ऊपर सवार हो गया।
जगोधर भूकम्प की तरह डोल गये। राम राम कहते हुए हैंडल संभाले। दिन रात हनुमान के मंदिर के आगे बैठे कुत्तों की विधानसभा मंडली ने श्री राम के नारे को माफ नहीं किया और उन्हें अंतिम स्थल तक रगेदते रहा।
जगोधर घने कुहरे को चीरते रहे, साइकिल को ब्रह्मोस समझकर भगाते रहे।
पहिये की गति और नितम्बों के हाई जंप देखकर कोई अंजान आदमी देख ले तो समझ जाए कि रात में जगोधर ने शिलाजीत का सेवन गर्म दूध के साथ किया है।
भीड़ भाड़ में ऐसी दुर्घटना हो तो लोग जान भी पाते कि कुत्ता पगलाया है या जगोधर। पर यहाँ तो सब कुछ कोहरे में हो गया था। पता लगाने के लिए भी अमरीका से कोई अल्ट्रा रेडिएशन बेसड जाँच एजेंसी को बुलाई जाती।
सुबह की बेला में मंदिर के पास ऐसी घटना जब दुर्घटना में बदल जाए तो ये वैश्विक खतरे का विषय बन जाता है और जरूरत पड़े तो इस सूचना के साथ मन की डोर पर आपातकाल भी लगाया जा सकता है कि "सावधान रहें शिवपालगंज में कोई पगलाया है।"
इसके बाद जोगोधर से सीधे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद में ही भेंट हुई। मैं समझ गया था इनका ब्रह्मोस गति विफल रहा है। और कुत्ते ने इन्हें अकेला समझकर एक दो जगह ही दाँत गड़ाकर छोड़ दिया।
इसे घटना कहें या दुर्घटना पर कुछ इस तरह कुत्तों की विधानसभा मंडली भंग हो गयी।
सभी अपने अपने प्रवास जाने लगे। कुछ ने कुतिया का साथ चुना, कुछ ने खेतों और खम्भों का, कुछ ने वापस मंदिर के पास का चौराहा और कुछ वहीं बेघर हो गये।
मैंने जगोधर का साथ चुना।
पीछे जगोधर को धान के बोझे की तरह बैठाया और हैंडल, पैंडल को सत्ते की तरह संभाला। रास्ते में जगोधर भाग्य को दोष देते रहे और बताते रहे- अच्छा हुआ कोई बड़ा हमला न हुआ, आज दिन ही खराब है हो। शनिचर है।
मैं देख रहा हूँ मेरे आँखों के सामने सब धूमिल हो चुका है। ठंड और कोहरे ने फिर से घेरना शुरू कर दिया है। अचानक बचते बचते साइकिल किसी के सामने जा रुकी है।
आँखों के पास से कोहरा हटाया तो देखा बबिता है। मैं चहक उठा। मैं समझ गया कि भले जगोधर के लिए शनिचर खराब हो पर मेरे लिए यही शनिचर मंगल होने जा रहा है।
मन तो हुआ कि जगोधर को उतार कर यहीं सत्ता का दल बदल कर लूँ। तब तक वो बोल बैठी "सूझता नहीं है क्या जी? एकदम आन्हर हो क्या?"
मन तो ये भी हुआ कि कह दें सूझता है इसीलिए तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से ढोकर ला रहे हैं तुम्हारे बाबूजी को। वरना एक दो कुत्ता हम भी पाल कर छोड़ दिये होते इनके पीछे।
पर मैं क्या बोलता सालों बाद उसकी मिठास सुन रहा था। बस सुनता ही रहा। किसी ने सही कहा है पत्नी और प्रेमिका के गुस्से में भी मिठास होता है बस सुनने वाला चाहिए।
आज जब इस घटना को क़ई साल बीत गए हैं और खेतों में सरसों फूल खिलते देखता हूँ तो बबिता के सुंदर चेहरे के साथ फिर वही बातों की मिठास याद आती है जिसमें वो कह रही होती है "सूझता नहीं है क्या जी? एकदम आन्हर हो क्या?"
और मैं उन फूलों से मुस्कुरा कर कह रहा होता हूँ "हाँ आन्हर हैं हो,..तुम्हारे प्यार में"
अभिषेक आर्यन