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एक बार पाँच दिवसीय नाटक समारोह में पता चला सीता जी बीमार हो गयी हैं। पूरा गाँव चिंता में डूब गया।
लोग खाना नहीं खा रहे। कल कौन करेगा सीता मैया का रोल ?
जो हनुमान कभी लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी खोजने गये थे, आज माँ सीते के लिए वैध प्यारे लाल के क्लिनिक में जड़ी बूटी खोज रहे हैं और जो रावण कभी माँ सीते को अपहरण कर ले गये थे आज उनके ही घर वापस लौटकर पैर दबा रहे हैं।
प्रभु श्री राम निर्धारित समय सीमा से पहले ही अनुज लक्ष्मण के साथ वनवास से लौट चुके हैं और सीते के हाथ छूकर बतला रहे हैं बुखार तेज है। माथे पर ठंडी पट्टी बाँधो।
मंचन तैयार करने के समय में औषधियां तैयार की जा रही हैं। अरे अभी ही तो दिया था दवा, बुखार उतर काहे नहीं रहा.....ओह कितना दुखद, सब प्रभु की माया है।
ईश्वर की नाटकीय मंडली ने ईश्वर का प्रार्थना किया और कहा- ठीक हो जाओ सीते नहीं तो पूरा गाँव क्या कहेगा, यही कि आज तक इस गाँव में सही से रामायण का मंचन तक नहीं हो पाया।
और देखो बगल के गाँव दासोपुर में लोग पिछले चार साल से प्रथम पुरस्कार जीत रहे।
दो साल पहले भी यही हुआ था। अपहरण के समय जब रावण माँ सीते को कंधे पर लादकर जोर जोर से हँसते हुए ले जा रहा था तब माँ सीते बेहोश हो गयी थी। उस दिन वैध प्यारे लाल की सारी औषधियाँ अवैध घोषित हो गयी थी और पता चला माँ सीते नहीं रही।
कई दिनों तक लोग शोक और मातम में रहें। हवाओं में करुण रस का स्थायी भाव रहा।
आज भी कुछ ऐसा ही था। पर हमने कहा कोई नहीं बाकी का बचा किरदार हम निभा लेंगे।
सवाल उठ गया, पर चेहरा तो बदल जाएगा।
हाँ बदल जाएगा, पर माँ सीते अपनी भेष बदलना भी जानती हैं। वो हर जगह हैं, हर रूप में हैं।
साड़ी पहनाई जाने लगी। हाथों में चूड़ियाँ, पैरों में पायल। माथे पर मुकुट। लोग इकट्ठा हो रहे, तालियों के साथ पर्दा खुल रहा।
मंचन का आखिरी दिन, माँ सीते की विदाई का आखिरी दिन। आज धरती के साथ कलेजा भी फटने को है।
बैकग्राउंड में म्यूजिक चल रहा है और माँ सीते कहती हैं-
मैं प्रभु श्री रघुनाथ के सिवा किसी दूसरे पुरुष का चिंतन नहीं करती और नहीं जानती। यदि ये कथन सत्य है तो मुझे इसी क्षण भगवती पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें।
बिजली कड़कती है। हवाएं तेज हो जाती हैं। स्टेज का एक कोना खाली होते हुए दिखता है। जैसे सचमुच धरती फट रही हो। भीतर से पृथ्वी देवी निकलती हैं और सीते को ये कहते हुए अपने पास बुलाती हैं कि "आओ मेरी पुत्री, माँ की गोद तो पुत्री के लिए सदा खुली रहती है।"
प्रभु श्री राम, उनके पुत्र और प्रजाओं के साथ अंतिम संवाद करते हुए माँ सीता विदा लेती हैं। वो पृथ्वी देवी के गोद में चली जाती हैं और समाहित हो जाती हैं। अंतिम विदाई धरती को फिर से समतल और एक बना देती हैं। लोगों के मन और आँख आँसू से भींग जाते हैं।
पर्दा गिरता है। श्री राम और माँ सीते के नारे लगते हैं। तालियाँ बजती है और मैं स्टेज के नीचे होता हूँ।
उस दिन के बाद से लोग जानने लगे कि फलना का बेटा सीता मैया का रोल किया था। कभी गाहे बगाहे लोग मिल जाते हैं तो चाय पूछते हैं और बताते हैं कि बड़ अच्छा रोल कइले रहला बेटा, गाँव के इज्जत बचा लेला जहिया।
उसके बाद से उम्र अनुपातिक भाव से चलता रहा और आगे की पढ़ाई के साथ छूटता गया बहुत कुछ। जो भीतर बचा रह गया वो साहित्य। शायद ये न छूटे कभी, ये नशा जैसा है।
इन दिनों प्रेमचंद रंगसाला में तुलसीराम की आत्मकथा पर आधारित मुर्दहिया का मंचन देखना हुआ।
निर्देशन, स्क्रिप्ट और एक्टिंग की मेहनत चित्रपटल पर झलकती रही। क़ई अच्छे सीन में एक सीन जो मन पर असर छोड़ गया जिसमें एक लड़की का बियाह तय हो जाता है और रोते हुए कहती है- हमर पढ़इया छूट जाई ए बाबा। ये हमारे समाज की विडंबना है, आवाज की चोट मन पर वार करती है। एक अच्छा निर्देशन और अच्छी एक्टिंग ऐसी ही होती। आप सब कमाल हैं।
पर्दे के पीछे की मेहनत को मैं समझ सकता हूँ, इसलिए भी कि मैं खुद इसी क्षेत्र में हूँ। डेढ़ घण्टा का प्ले इतना भी आसान नहीं होता। डेढ़ साल पहले जब सात मिनट की शार्ट फ़िल्म एडिट कर रहा था तो उसपर बीस घण्टे की एडिटिंग चलाई थी।
कला समय माँगती है और मन की पवित्रता भी। मन पवित्र हो तो अपने क्षेत्र का रेडिओएक्टिव तत्व भी बना जा सकता है। क्रिएटिविटी तो समय और अनुभव के साथ आ ही जाता।
जय हो।
Writer- Abhishek Aryan